देवभूमि के नाम से विश्व भर में विख्यात उत्तराखंड अपने खास रीति-रिवाजों के लिए जाना जाता है। हालांकि बदलते वक्त और परिस्थितियों के चलते पहाड़ की पौराणिक परंपराएं दम तोड़ती जा रही हैं, मगर आज भी कई क्षेत्र और गांव ऐसे हैं जो आज भी अपनी पौराणिक परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं।
[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी, पोखरी क्वीली @नरेंद्र बिजल्वाण[/su_highlight]
अपनी उन्हीं पौराणिक परंपराओं को आज भी जिंदा रखे हुए है विकासखंड नरेंद्र नगर की पट्टी क्वीली का बमणगांव। बमण गांव में हर 3 साल के बाद अपने कुल/ईष्ट देवी-देवताओं का स्मरण व आह्वान करते हुए ढोल-दमाऊं की थाप पर एक विशेष तरह का नौरता-मडाण लगाया जाता है। जिसमें गांव के ही नहीं क्षेत्र के लोग बड़े चढ़कर हिस्सा लेते हैं। पंडों के नाम से विख्यात नौरता-मंडाण के आयोजन के लिए पंडित मनोहरी लाल की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन किया गया।
नौरता-मंडाण संरक्षण मंडल तथा संचालन समिति का किया गठन
बैठक में नौरता-मंडाण संरक्षण मंडल तथा संचालन समिति का गठन किया गया। संरक्षण समिति में पीतांबर दत्त बिजल्वाण, मूर्ति सिंह रावत, भक्ति प्रसाद बिजल्वाण, दर्शन लाल बिजल्वाण आदि को सर्वसम्मति से चयन किए जाने के साथ इनके दिशा निर्देशन में विशेष पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जहाँ पौराणिक परम्पराओ और रीति रिवाजो को बचाने के लिये कई क्षेत्रों से सामाजिक कार्यकर्ता प्रयासरत हैं, वही गढवाल के 52 गढ़ो में से प्रसिद्ध क्वीली गढ़ के समीप प्राचीन बमणगांव जो की राजशाही के समय से ही काफी प्रसिद्धि प्राप्त गावं में से एक है, बमणगांव को राजशाही के दौरान कुली-बेगार प्रथा से अलग रखा गया था, क्योंकि यहाँ राज रसोया सरोला जाति के बिजल्वाणो का मूल गांव था, जिनका राजशाही परिवार बहुत सम्मान करता था, इस पौराणिक प्रसिद्धि प्राप्त गावं में 600 सालो से यह पौराणिक परम्परा (पण्डो के नोरत्ता पण्डो मन्डाण) अपने पौराणिक रीति रिवाजो के साथ चली आ रही है, जो हर तीन साल के पुरे होने पर नोरत्ता पण्डो मंडाण आयोजित किये जाते हैं।