संत कौन: वृक्ष कबहुँ न फल भखै…!

    संत कौन: वृक्ष कबहुँ न फल भखै...!
    play icon Listen to this article

    वृक्ष कबहुँ न फल भखै नदी न संचय नीर
    परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर

    न प्राप्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति
    न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत:

    संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होते अपमान होने पर क्रोधित नही होते तथा स्वयं किसी भी स्थिति परिस्थिति में क्रोधित होने पर भी कठोर शब्द नही बोलते अर्थात सुख-दु:ख में भी शांत व समान ही रहते हैं।

    जिस प्रकार वृक्ष स्वयं अपना फल नहीं खाते और नदी अपना पानी स्वयं नहीं पीती उसी प्रकार साधु- संत केवल और केवल परोपकार अर्थात दूसरों की भलाई के लिये ही जीते हैं।

    🚀 यह भी पढ़ें :  कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी से अमावस्या तक दीपावली मनाने वालों के घर को मां लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती

    दुसरे शब्दों में कहें कि जैसे जल की प्रकृति शीतलता हैै उसी प्रकार संत की प्रकृति भी सरलता, सहजता, प्रेम और अंहिसा ही है।

    पानी आग तो बुझा सकता है लेकिन पानी अगर ठंड़ा न होकर खौलता हुआ गर्म हो तो आग तो बुझ जायेगी लेकिन आग से भी ज्यादा जलाने का जो अवगुण पानी के गर्म होने के बाद उसमें उत्पन्न हुआ वह और अधिक नुकसान करता है।

    जिस प्रकार प्रदुषित और गर्म पानी में मछली नहीं रह सकती उसी प्रकार प्रदुषित व क्रोधित जीवन किसी भी दृष्टि से किसी के लिये भी किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं है।

    🚀 यह भी पढ़ें :  प्रख्यात पर्यावरणविद, समाजसेवी, सामाजिक चिंतक और प्रकृति संरक्षण के प्रति समर्पित स्व. श्री सुंदर लाल बहुगुणा जी की जयन्ती पर स्मरण

    इसलिये अपने बच्चों व समाज को सुशिक्षित कर उनके भीतर अच्छे संस्कारों का बीज रोपित करने का प्रयास निरंतर करते रहें ताकि उन सभी का मन प्रत्येक स्थिति परिस्थिति में शांत, निर्मल, निश्चल एवं शुद्ध रह सके।

    मानव जीवन की यात्रा की उपलब्धि के दो ही भाग हैं, सभ्यता और संस्कृति। सभ्यता का आकलन व्यक्ति के व्यवहार से होता है और संस्कृति का आकलन उसकी आंतरिक भावनाओं से होता है। सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा हैै।

    संत-साधु मोहमाया से दूर निस्वार्थ भाव से केवल और केवल समाज के हितार्थ ही चिन्तन मनन करते रहते हैं। इसी कारण संतों की कीर्ति सदैव बनी रहती है। हमारी भारत भूमि संतो ऋषियों की पवित्र भूमि है।

    🚀 यह भी पढ़ें :  बंदरों के आतंक का स्थायी समाधान निकाले सरकार, पिंजरा लगाकर पकड़ना वैकल्पिक

    धन्य एवं बहुत सौभाग्यशाली हैं हम जो हमने इन ऋषियों की तपस्थली एवं त्याग की पवित्र भूमि भारत में जन्म लिया।

    इसलिये हम सबको सदैव संतों के बताये मार्ग के अनुसार मन-वचन एवं कर्म से सदा सर्वदा सत्य की राह व उसके अनुसार ही आचरण करते हुये मृदूभाषी बनना चाहिये।

    [su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]ई०/पं०सुन्दर लाल उनियाल (मैथिल ब्राह्मण)[/su_highlight]

    नैतिक शिक्षा व आध्यात्मिक प्रेरक