जीत मुबारक, राजाओं!
माननीय महाराजाओं,
शीश पर मुकुट चमकें।
ताज की लाज रखना!
गुजारिश है,पैंतरे न बदलना !
जीत की बधाई, सिकन्दरों!
पोरष का भी स्मरण करना।
गंगा बहुत दूर है !
सतलजों में स्नान कर,
यूनान चले जाना।
शुभकामनाएं, महान अकबरों!
नव रत्नों को शुक्रिया,
हल्दी घाटी सूखी नहीं,
यह भी भी याद रखना!
भले, राजधानी आगरा ले जाना।
राणा प्रताप छत्रपति बनते हैं,
छत्रप नहीं बन सकते।
घास की रोटियां खाते हैं,
लेकिन वसूलों से नहीं डिगते,
स्वाभिमान के लिए हैं मरते।
विजय श्री मुबारक हो, राजाओं!
सदा जय- जयकार हो!
छत्तीस व्यंजन खाना,
चौवन भोग भी लगवाना,
लेकिन फिरंगियों के झांसे में न आना!
निराली दुनिया
रीझ जाता है मेरा मन,
देख दशा बचपन की।
हर्षित पुलकित उल्लासित,
लख इस सुन्दरता की।
भोला प्यारा निश्छल बचपन,
बरवश आता है सम्मुख,
साक्षात दर्शन पाता प्रभु के,
देख बच्चों के करतब।
भागवत सुनने गांव गया था,
पाने ज्ञान धर्म सभा में,
भूल गया ज्ञानकथा पलभर में,
रीझ गया मन शिशुओं से।
तन मन की सब होश गवां दी,
सब बिसर गया पंडाल़ सभा।
विचलन भाव भर गया मन में,
देख बच्चों की मासूम अदा।
भागवत से बढ़कर शिक्षक को,
भायी बच्चों की मासूम अदा।
शिशुओं के प्रेम मैं कवि पागल,
पाता प्रभुदर्शन शिशुरूप सदा।
कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
(कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।