भारत विश्वगुरु ऐसे ही नहीं कहा जाता है अपितु हमारे देश का इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता है, भले ही हम उससे कुछ सीखें या न सीखें! वैदिक साहित्य तथा हमारे पुराण हमारी संस्कृति को जीवन्त बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।
सरहद का साक्षी@आचार्य हर्षमणि बहुगुणा
यह अलग मुद्दा है कि कतिपय लोग अपनी संस्कृति में केवल विकृतियां ही खोजने का प्रयास करते हैं। छिद्र हर जगह हैं और हमारा दायित्व है कि हम उन्हें बन्द करने का प्रयास करें।
आज प्राय: धर्म की परिभाषा न जानने वाले ही धर्म पर अधिक व्याख्यान देते हैं, ऐसे में ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं कुछ न कुछ खोट अवश्य है। आज श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के तीसरे अध्याय के दो श्लोकों को उद्धृत कर उनसे कुछ सीखने की चेष्टा करते हैं। इनसे हमें यह शिक्षा मिलती है कि-
सर्वतो मनसोऽसङ्गमादौ सङ्गं च साधुषु ।
दया मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ।।
शौचं तपस्तितिक्षां च मौनंस्वाध्यायमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयो: ।। 11/03/23-24।
हम यह सीखें – पहले शरीर, संतान आदि में मन की अनाशक्ति सीखें, फिर भगवान के भक्तों से प्रेम कैसे किया जाता है यह सीखें, फिर प्राणियों के प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनम्रता की निष्कपट भाव से शिक्षा लें, मिट्टी और पानी से बाह्य शरीर की पवित्रता, छल-कपट के त्याग से भीतर की पवित्रता,यह बहुत आवश्यक है। अपने धर्म का अनुष्ठान, यह भोजन में नमक की तरह स्वादिष्ट लगेगा। सहन शक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मश्चर्य, अहिंसा, शीत-बात-उष्ण , सुख-दुख द्वन्द्वों में हर्ष विषाद से रहित होना। यह सब सीखने योग्य हैं।
बात बहुत सामान्य हैं पर हैं जीवन यापन के काम की, यदि इनमें से कुछ हमारे पल्ले पड़ती हैं तो हमारा जीवन आनंदमय हो सकता है, कुछ न कुछ सकारात्मक प्रयास अपेक्षित है, परिणाम लाभकर ही होगा, ऐसा इस जन का मानना है। अवश्य कुछ चिन्तन कीजिए! ईश्वर सबका हित करेंगे।