काव्य कृति अंश: शरद मटरमय होत सकलाना…!

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काव्य कृति अंश: शरद मटरमय होत सकलाना...!
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[su_highlight background=”#880930″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।[/su_highlight]

    आजकल अपनी छानी की तरफ जाता रहता हूं।  सुदूर फैली हुई घाटी पर निगाह दौड़ता हूं। धन-धान्य से परिपूर्ण घाटी को निहारता हूं।
आजकल मटर की फसल खेतों में लहरा रही है। संस्कार स्वरुप थोड़ी फसल मेरी भी बोई हुई है। गहरी घाटियों में आजकल भी मटर की बुवाई भी चल रही है लेकिन उच्चतर भागों में मटर की फसल फूलने  लगी है।

दृश्य देखकर अनायास ही अपनी प्रथम काव्य कृति “दिव्य-श्रीखंड (प्रकाशित सन् – 2001) की पंक्तियां  स्मरण हो आयी-

   “शरद मटरमय होत सकलाना,
मटरगश्ती कोई न करें।
करें जो दुरुपयोग समय का ,
वर्ष भर भूखा वही मरे।
जीवन स्तर सुधर गया है,
मिलजुल कर खेती करने से।
बचता है जो नित परिश्रम से,
पाप का भांडा वही भरे।
वर्ष चौहत्तर से धीरे-धीरे,
मटर क्रांति का युग आया।
गोविंद सिंह नकोटी सबसे पहले/
बीज कालावन तेगना  लाया।
वर्षा ऋतु की बाद फसल यह,
हेमंत शरद अब तक खूब चली।
अरकल बीज मटर के आने से,
आमदनी भी अब खूब बढी।
बच्चों की अब क्षेम- कुशल नहीं,
मटर कुशलता सब पूछें।
आलू बेचारा लुढ़क गया है,
गोभी गाजर भी चमक गए।
हरा धनिया और चुकंदर खेती,
करने भी अब सब लोग लगे।
मूली शलजम तो खेतों में,
भाव कमी से सड़न लगे।
राई को अब क्या पूछे कोई,
घास इसे सब कहने लगे।
बोरा  महंगा -राई  सस्ती,
गाजर बोने अब लोग लगे।
कद्दू की कोई बात क्या पूछे!
फसल टमाटर अब खेतों में।
छेमी -परवल साग सब्जियां,
अब खाएं लोग खुशहाली से।
दी पलट किस्मत किसान की,
मटरदेव देवता बन आया।
महंगा बिकने के कारण यह,
स्वयं किसान ने नहीं खाया।
जगह जगह बन गई मंडिया,
घर-घर व्यापारी दलाल चले।
यदि प्रतियोगी मिल जाए कोई,
तो उसको वह बहुत खले।
एल पी गाड़ी चली सड़क पर,
आलू मटर सवार किए।
कोई कहे सेठी कोई कहे जेटी,
कोई जी आर -एस एस नाम धरे।
देहरा- दिल्ली पास आ गया,
रोज-रोज के चलने से।
सड़कों पर छा गया ट्रैफिक,
अब आमदनी के बढ़ने से।”