[su_highlight background=”#880930″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]
हम अकेले ही- सृष्टि में सर्जन करते हैं !
चलते-चलते राहों पर बैठ –
अकेले क्षुधा प्यास मिटाते हैं।
हम उस पथ के राही हैं, जिस पर चलते हैं-
सब अकेले भावों में विह्वल, खोये सपनों में।
हम अकेले ही——
भाग्य विधाता देख रहा है- उच्च शिखर से,
श्रद्धा भाव से अनंत शांति पाने वालों को।
हम ऊंचाई छूने वाले हैं कोलाहल से दूर,
ऊंचे वीरान पहाड़ों में- जंगल के बीच बनी हुई – राहों में, अकेले ही रचना रचते हैं।
हम अकेले ही——
कभी-कभी हम राह भटक जाते हैं,अपने भाव ख्यालों में जिन राहों पर चलते हैं -लोग मटक- मटक कर।
हम अकेले ही—–
मां ! ले प्रसाद के रूप में, मेरे प्रेम छलकते आंसू !
कितना सुंदर होता ! यदि कोई पथ का साथी होता! साथी तो बहुत से मिले हैं- पर कोई तो साथ निभाता ! कितना सुंदर होता ! यदि कोई ऐसा मिलता,
जो बैठ ऊंचाई के पथ पर- कविता सुनता और सुनाता !
हम अकेले ही——
क्या जीवन रस मिलता है हमको?निर्जन वन में सृजन से एक हताशा भरे विश्व में -मन निर्मल करने से।
क्या भाव भरे हैं मेरे इस मन में,
खट्टे- मीठे, कुछ कड़वे तीखे !
उच्च शिखर से देख रही मां, कुछ प्रसन्न कुछ रूठे !