स्वयं पर विजय प्राप्त करने वाले को ही सबसे बड़ा विजेता कहा जा सकता है!

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हिन्दी दिवस पर विशेष: कैसे हिन्दी की उन्नति के विषय में प्रयास किया जाय विचारणीय?
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स्वयं पर विजय प्राप्त करने वाले को ही सबसे बड़ा विजेता कहा जा सकता है। दूसरों पर आक्रमण करने के लिए सेना की आवश्यकता होती है, परन्तु अपनी कमजोरियों पर आक्रमण करने के लिए कठोर साधना की आवश्यकता होती है। दूसरे तो आक्रमण के समय बेखबर भी हो सकते हैं, परन्तु आत्म विजेता सदैव जागरूक रहने वाला ही हो सकता है। इसके लिए ‘आत्मानुशासन’ की आवश्यकता होती है।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @ आचार्य हर्षमणि बहुगुणा [/su_highlight]

स्वामी रामतीर्थ की अमेरिका यात्रा के समय जब वहां के राष्ट्रपति रूजवेल्ट उनसे मुलाकात करने आए, उस समय स्वामी रामतीर्थ अपने आप को बादशाह रामतीर्थ कह कर पुकारा करते थे। इस पर अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने उनसे पूछा कि “आप किस देश के बादशाह हैं? स्वामी रामतीर्थ का उत्तर था- मैं स्वयं का सम्राट हूं, क्योंकि मैंने स्वयं को जीत रखा है।” रूजवेल्ट को तब आभास हुआ कि सच्चा योद्धा केवल साधक ही हो सकता है। यदि सही देखा जाय तो हमारे सबसे बड़े शत्रु हमारे कुसंस्कार ही हैं। यही कुसंस्कार हमारी आन्तरिक उत्कृष्टता को दबा देते हैं और जैसे ही हम अच्छाई की ओर कदम बढ़ाते हैं तभी ये कुसंस्कार बाधा बन कर हमारे मार्ग में खड़े हो जाते हैं। यदि इन पर एक बार विजय पा भी ली जाय तो यह अर्थ नहीं है कि हम उन पर हमेशा के लिए विजयी हो गये हैं। अतः इनसे निपटना बहुत बड़ी बहादुरी का काम है।

अनाज में यदि घुन लग जाय तो वह खाने योग्य नहीं रह जाता। वैसे ही मानव के साथ भी कुछ इसी तरह के विषाणु, दीमक का काम करते हैं। दुष्प्रवृत्तियां, दुर्गुण,दुर्भावनाएं, छल-कपट, द्वेष- घृणा मानव को पतन के गर्त की ओर ले जाते हैं, और उसकी उन्नति का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। अतः जिसे आन्तरिक दृष्टि से उन्नति करनी होती है उसके लिए साधना रूपी कठोर श्रम का पथ आवश्यक है। ऐसा कठोर परिश्रमी व्यक्ति ही आत्मविजेता बन सकता है और आत्म विजेता ही विश्वविजेता होता है। क्या हम इस पथ पर आगे बढ़ सकते हैं? क्या हम अपनी कमियां देखने का श्रम कर सकते हैं अवश्य! केवल और केवल अपनी कमियों को देखें व उन्हें दूर करने का प्रयास करें ? तो इस संसार को स्वर्ग से भी अधिक अच्छा बना सकते हैं!

आध्यात्मिक उन्नति के लिए सादा जीवन, उच्च विचार ही श्रेयस्कर होता है। दूसरा मेरे से बेहतर है यह भावना श्रेयस्कर है, मैं सबसे श्रेष्ठ हूं यह भावना पतन का कारक है। जीवन में सच्ची शांति, आन्तरिक पूर्णता के द्वारा ही मिल पाती है, यदि जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य मात्र पेट भरना ही होता तो पशु इस काम को हमसे बेहत्तर कर सकते थे, कर सकते हैं। यदि जीवन का लक्ष्य अपने परिवार को बड़ा कर लेना मात्र होता तो विश्व भर के लोगों ने मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया होता। पर मन में उच्च विचार रखते हुए सादा जीवन ही मानव की उन्नति का आधार है। अतः ऐसे भाव मन में भरे रहें। क्या करना चाहिए यह विचारणीय है, यदि हम सब एक संकल्प लें कि जैसे उत्तरी गोलार्ध में आज का दिन सबसे छोटा है और ऐसे सुअवसर पर यदि परमपिता परमेश्वर ने इस छोटे दिन हमें (मुझे) इस भारत भूमि में भेजा तो लघिमा जैसी सिद्धि के अनुरूप अपनी-अपनी जगह भारत मां की सेवा में तन- मन अर्पण कर कुछ न कुछ सकारात्मक कर्म किया जा सके। यह विचार किया जाय कि — अधिक साधन आ जाने से मन की दरिद्रता कम नहीं होगी, पैसे बढ़ जाने से दिल बड़ा नहीं होगा, पद बड़ा हो जाने से आध्यात्मिकता बढ़ नहीं जाएगी।

सच्चा साधक कौन है इस पर गहन चिन्तन की आवश्यकता है। गीता में कहा गया है कि –

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता:।।

मानव यदि मनकल्पित घोर तप करते हैं दम्भ और अहंकार से युक्त और कामना, आशक्ति और बल के अभिमान से युक्त हैं वे आसुरी भाव वाले हैं। शास्त्र विधि रहित घोर तप करने वाले व्यक्ति ‘श्रद्धा’ रहित होते हैं। अतः सच्चा आनन्द उस साधक को मिलता है जो नि:स्वार्थ भाव से समाज की सेवा में लीन रहता है। आज विडम्बना यह है कि हम मृग- मरीचिका में उलझे हुए हैं और उस आकर्षक दौड़ में अपने जीवन को गंवा रहे हैं और अन्त में हताशा व पश्चाताप का शिकार हो रहे हैं।

मानवता आवश्यक है! हम सत्य की साधना की जगह सत्य का प्रदर्शन कर ही अपना काम चला रहे हैं। सत्य और ईमानदारी को नियम नहीं, नीति ही मानते हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि हम परसत्वापहरण न कर सेवा भाव से कार्य करें। आज का पावन दिवस इस संकल्प को पूरा करने में प्रर्याप्त हो कि दूसरे लोगों को। किसी भी तरह क्षति न हो! ईश्वर प्रदत्त यह शरीर दूसरे के हितार्थ समर्पित हो। जिस दिन इस धरा पर आए तो तन ढकने को जो वस्त्र मिला जेब रहित था, और जिस दिन इस संसार को छोड़कर जाना है उस दिन जो वस्त्र मिलेगा वह भी जेब रहित होगा। अर्थात् कुछ लेकर भी नहीं जा सकते। फिर भी हाय-हाय!।

स्वाभाविक है कि धनार्जन किया जाय परन्तु परिश्रम से! छल-कपट से नहीं? केवल अपने स्वार्थ की सिद्धि नहीं? कर्त्तव्य पालन करने से न कि ईर्ष्या – द्वेष से । सब कुछ छोड़कर जाना है यह याद रखना आवश्यक है। अपने जन्मोत्सव को यादगार बनाया जाय, इसलिए आज पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए बीस फल दायक वृक्षों को लगाने का संकल्प है व उसके बाद इस शीत काल में शताधिक पौधों को लगाने का लक्ष्य सुनिश्चित है। साथ ही अपने लाभ को छोड़कर सार्वजनिक लाभ को दृष्टिगत रखते हुए श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय जो अचिर भविष्य में ऋषिकेश में (कुछ विभाग) स्थानांतरित होने वाला है को रोकने के लिए जन जागरण अभियान, वानिकी महाविद्यालय में अन्य विभागों का संचालन, गोवंश की रक्षा सुरक्षा हेतु गौशाला बनवाने के लिए जन जागरण, फक्वा पानी से पुण्यासिनी मन्दिर भमोरिया धार होते हुए थान सावली मोटर मार्ग से जुड़वाने के लिए सार्थक प्रयास, गली-मुहल्ले के रास्ते ठीक हों? लगभग बीस वर्ग मील क्षेत्र फल से अधिक फैले हुए सावली गांव के विकास के लिए दो ग्राम पंचायतों की सुविधा के लिए जन जागरण, आदि कार्ययोजना से सामान्य जनसमूह को जुड़ने के लिए प्रेरणा का स्रोत देना होगा! शायद अपने लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम अवश्य हो सकेंगे।