अमृत बूंदें टपकी अंबर से,
धरती मां की जलन मिटी।
तरु तृण जीव परिंदे जग के,
अति हर्षित हो कर झूम उठे।
आग लगी थी जंगल में,
तरु तन भीषण जलन हुई।
वर्षा की मधु बौछारों से,
तन मन की भी जलन गई।
कई दिनों से घन अंबर में,
आवारा बन कर थे घूम रहे!
धरती मां की पुकार सुन,
फिर मेघ बरसने आज लगे।
काला वन जंगल आग से,
जलकर के था स्याह बना।
जल की इन अमृत बूंदों से,
जलता जंगल हरित हुआ।
सांय रात्रि अरु उषाकाल में,
गहन नाद भर जल बूंद पड़ी।
धरती माता निशांत भोर में,
सद्य -स्नान कर सौंदर्यमयी।
मानसून से पूर्व यह वारिष,
धन-धान्य खजाना भर लायी।
मई मास की यह मधु बौछारें,
कवि निशांत उर तन मन भायी।
कवि:सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’