कविता: देखो! वर्षा कहां चली गई!
देखो! वर्षा कहां चली गई! पानी को जब तडफेगें सब, क्या कीमत पानी की समझेंगें तब!
अभी बचा लो बूंद- बूंद जल,
वरना झुलस मरोगे सब बिन जल।
तीन माह से बादल रूठा है,
अब ग्रीष्मकाल में अंबर आग उगलेगा!
सूख जाएंगे जलस्रोत सरितायें,
बिन जल प्राणि तृण कैसे जीवित रहेगा?
कल वर्षा की बूंद पड़ी थी,
धरती उर मे कुछ नव आस जगी थी।
पर भाग्य में कुछ और लिखा है,
देखो,समझो! बारिश कहां चली गयी है?
पंपिंग योजना खूब बना लो,
नल -नलखे घर -घर जग खूब बिछा दो!
सौंग खींच लो- सुर पर्वत तक,
हर घर घर तक नल का जाल बिछा दो!
बिन बारिश जब नदी प्यासी है,
फिर कैसे पानी बिन प्यास बुझेगी?
पानी की कीमत समझो,भाई,
वरना धरती मां नर भार नहीं सहेगी।
@कवि : सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’।
(कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा,टिहरी गढ़वाल।