विश्वविजेता स्वामी विवेकानंद, विज्ञान और परम्परा के महर्षि महेश योगी, शिवाजी की निर्माता माँ जीजाबाई

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    स्वामी विवेकानंद जी ने धर्म सभा में कैसे भारत का परचम लहराया?
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    विश्वविजेता स्वामी विवेकानंद: यदि कोई यह पूछे कि वह कौन युवा संन्यासी था, जिसने विश्व पटल पर भारत और हिन्दू धर्म की कीर्ति पताका फहराई, तो सबके मुख से निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द का नाम ही निकलेगा।

    सरहद का साक्षी @ महावीर सिघंल

    विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। उनका जन्म कोलकाता में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। बचपन से ही वे बहुत शरारती, साहसी और प्रतिभावान थे। पूजा-पाठ और ध्यान में उनका मन बहुत लगता था।

    नरेन्द्र के पिता उन्हें अपनी तरह प्रसिद्ध वकील बनाना चाहते थे; पर वे धर्म सम्बन्धी अपनी जिज्ञासाओं के लिए इधर-उधर भटकते रहते थे। किसी ने उन्हें दक्षिणेश्वर के पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में बताया कि उन पर माँ भगवती की विशेष कृपा है। यह सुनकर नरेन्द्र उनके पास जा पहुँचे।

    वहाँ पहुँचते ही उन्हें लगा, जैसे उनके मन-मस्तिष्क में विद्युत का संचार हो गया है। यही स्थिति रामकृष्ण जी की भी थी; उनके आग्रह पर नरेन्द्र ने कुछ भजन सुनाये। भजन सुनते ही परमहंस जी को समाधि लग गयी। वे रोते हुए बोले, नरेन्द्र मैं कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा में था। तुमने आने में इतनी देर क्यों लगायी ? धीरे-धीरे दोनों में प्रेम बढ़ता गया। वहाँ नरेन्द्र की सभी जिज्ञासाओं का समाधान हुआ।

    उन्होंने परमहंस जी से पूछा – क्या आपने भगवान को देखा है ? उन्होंने उत्तर दिया – हाँ, केवल देखा ही नहीं उससे बात भी की है। तुम चाहो तो तुम्हारी बात भी करा सकता हूँ। यह कहकर उन्होंने नरेन्द्र को स्पर्श किया। इतने से ही नरेन्द्र को भाव समाधि लग गयी। अपनी सुध-बुध खोकर वे मानो दूसरे लोक में पहुँच गये।

    अब नरेन्द्र का अधिकांश समय दक्षिणेश्वर में बीतने लगा। आगे चलकर उन्होंने संन्यास ले लिया और उनका नाम विवेकानन्द हो गया। जब रामकृष्ण जी को लगा कि उनका अन्त समय पास आ गया है, तो उन्होंने विवेकानन्द को स्पर्श कर अपनी सारी आध्यात्मिक शक्तियाँ उन्हें दे दीं। अब विवेकानन्द ने देश-भ्रमण प्रारम्भ किया और वेदान्त के बारे में लोगों को जाग्रत करने लगे।

    उन्होंने देखा कि ईसाई पादरी निर्धन ग्रामीणों के मन में हिन्दू धर्म के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ फैलाते हैं। उन्होंने अनेक स्थानों पर इन धूर्त मिशनरियों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी; पर कोई सामने नहीं आया। इन्हीं दिनों उन्हें शिकागो में होने जा रहे विश्व धर्म सम्मेलन का पता लगा। उनके कुछ शुभचिन्तकों ने धन का प्रबन्ध कर दिया। स्वामी जी भी ईसाइयों के गढ़ में ही उन्हें ललकारना चाहते थे। अतः वे शिकागो जा पहुँचे।

    शिकागो का सम्मेलन वस्तुतः दुनिया में ईसाइयत की जयकार गुँजाने का षड्यन्त्र मात्र था। इसलिए विवेकानन्द को बोलने के लिए सबसे अन्त में कुछ मिनट का ही समय मिला; पर उन्होंने अपने पहले ही वाक्य ‘अमरीकावासियो भाइयो और बहिनो’ कहकर सबका दिल जीत लिया। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा। यह 11 सितम्बर, 1893 का दिन था। उनका भाषण सुनकर लोगों के भ्रम दूर हुए। इसके बाद वे अनेक देशों के प्रवास पर गये। इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र हिन्दू धर्म की विजय पताका लहरा दी।

    भारत लौटकर उन्होंने श्री रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी विश्व भर में वेदान्त के प्रचार में लगा है। जब उन्हें लगा कि उनके जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया है, तो उन्होंने 4 जुलाई, 1902 को महासमाधि लेकर स्वयं को परमात्म में लीन कर लिया।

    विज्ञान और परम्परा के महर्षि महेश योगी

    सम्पूर्ण विश्व में वेद विज्ञान तथा भावातीत ध्यान के माध्यम से भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान को पुनर्स्थापित करने वाले महर्षि महेश योगी का जन्म 12 जनवरी, 1918 को जबलपुर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। यह स्वामी विवेकानन्द का भी जन्म दिन है; और इन दोनों ही संन्यासियों ने विश्व भर में हिन्दू धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की पताका को फहराने का पुण्य कार्य किया।

    विज्ञान और परम्परा के महर्षि महेश योगी

    महर्षि का प्रारम्भिक नाम महेश प्रसाद वर्मा था। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से गणित और भौतिकी की पढ़ाई की थी। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रन्थों का भी गहन अध्ययन किया। अध्यात्म की ओर उनकी रुचि बचपन से ही थी। संन्यास लेने के बाद वे इस पथ पर और तीव्रता से बढ़ते गये।

    हिमालय और ऋषिकेश में उन्होंने लम्बी साधना की। ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द के बाद उन्हें ही इस पीठ पर प्रतिष्ठित किया जाने वाला था; पर किसी कारण से यह हो नहीं पाया। कुछ लोगों का मत है कि उनके जन्म से ब्राह्मण न होने के कारण ऐसा हुआ।

    पर इससे महेश योगी की साधना में कोई अन्तर नहीं आया। उन्होंने भारत के साथ ही विदेशों में अपना ध्यान केन्द्रित किया और नीदरलैण्ड में अपना केन्द्र बनाया। यहाँ उन्होंने ध्यान, प्राणायाम और साधना के अपने अनुभवों को ‘भावातीत ध्यान’ के रूप में प्रसारित किया।

    इससे मानव बहुत आसानी से अपनी आन्तरिक चेतना की उच्चतम अवस्था में पहुँच जाता है। यह भौतिकता, भागदौड़ और उन्मुक्त यौनाचार की चकाचौंध में डूबे खण्डित परिवार वाले पश्चिमी जगत के लिए नयी चीज थी। इसलिए उनके पास आने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी।

    महर्षि महेश योगी के साथ भावातीत ध्यान करने वाले अनुभव करते थे कि वे हल्के होकर धरती से कुछ ऊपर उठ गये हैं। उनका मत था कि ध्यान का उपयोग केवल अध्यात्म में ही नहीं, तो दैनिक जीवन में भी है। इससे मानव की आन्तरिक शक्तियाँ जाग्रत होती है, जिससे वह हर कार्य को अधिक सक्रियता से करता है।

    इससे जहाँ एक ओर उसका जीवन उत्कृष्ट बनता है, वहाँ उसे अपने निजी कार्य में भी आशातीत सफलता मिलती है। कुछ ही समय में ध्यान की यह विधि अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी। 1960-70 के दशक में विश्व प्रसिद्ध बैण्ड वादक बीटल्स, रोलिंग स्टोन्स, मिक जैगर और प्रसिद्ध लेखक दीपक चोपड़ा आदि ने महर्षि के सान्निध्य में इस विधि को सीखा। इससे महर्षि की ख्याति चहुँ ओर फैल गयी।

    उन्होंने विश्व में भारतीय संस्कृति, वेद और अध्यात्म पर आधारित रामराज्य की स्थापना का लक्ष्य लेकर काम किया। उनके अनुयायी भी राम ही कहलाते हैं। उन्होंने ‘राम मुद्रा’ का भी प्रचलन किया। महर्षि ने भारत और शेष दुनिया में हजारों विद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थापना की, जहाँ सामान्य शिक्षा के साथ योग एवं ध्यान की शिक्षा भी दी जाती है।

    महर्षि महेश योगी एक सच्चे वेदान्ती थे। वे अतीत को स्वयं पर हावी होने देने की बजाय वर्तमान और भविष्य पर अधिक ध्यान देने को कहते थे। वे लोगों से सदा हँसते हुए मिलते थे। इसलिए उन्हें ‘हँसता हुआ गुरु’ भी कहा जाता था। 6 फरवरी, 2008 को नीदरलैण्ड में ही उनका देहान्त हुआ। उनके पार्थिव शरीर को प्रयाग लाकर उनके अरैल स्थित उसी आश्रम में अन्त्येष्टि की गयी, जहाँ से उन्होंने अपनी अध्यात्म-यात्रा प्रारम्भ की थी।

    शिवाजी की निर्माता माँ जीजाबाई

    यों तो हर माँ अपनी सन्तान की निर्माता होती है; पर माँ जीजा ने अपने पुत्र शिवाजी के केवल शरीर का ही निर्माण नहीं किया, अपितु उनके मन और बुद्धि को भी इस प्रकार गढ़ा कि वे आगे चलकर भारत में मुगल शासन की चूलें हिलाकर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना में सफल हुए।

    जीजा का जन्म महाराष्ट्र के सिन्दखेड़ ग्राम में 12 जनवरी, 1602 (पौष शुक्ल पूर्णिमा) को हुआ था। उनके पिता लखूजी जाधव अन्य मराठा सरदारों की तरह निजामशाही की सेवा करते थे। इन सरदारों को निजाम से जमींदारी तथा उपाधियाँ प्राप्त थीं; पर ये सब एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इनमें परस्पर युद्ध भी होते रहते थे।

    शिवाजी की निर्माता माँ जीजाबाई

    एक बार रंगपंचमी पर लखूजी के घर में उत्सव मनाया जा रहा था। अनेक सरदार वहाँ सपरिवार आये थे। लखूजी की पुत्री जीजा तथा उनके अधीन कार्यरत शिलेदार मालोजी के पुत्र शहाजी आपस में खूब खेल रहे थे। लखूजी ने कहा – वाह, इनकी जोड़ी कितनी अच्छी लग रही है। मालोजी ने लखूजी से कहा, इसका अर्थ है कि हम आपस में समधी हो गये।

    इस पर लखूजी बिगड़ गये। उन्होंने कहा कि मैंने तो यह मजाक में कहा था। मेरे जैसे सरदार की बेटी तुम्हारे जैसे सामान्य शिलेदार की बहू कैसे बन सकती है ? इस पर मालोजी नाराज हो गये। उन्होंने कहा, अब मैं यहाँ तभी आऊँगा, जब मेरा स्तर भी तुम जैसा हो जाएगा। मालोजी ने लखूजी की नौकरी भी छोड़ दी।

    अब वे अपने गाँव आ गये; पर उनका मन सदा उद्विग्न रहता था। एक रात उनकी कुलदेवी जगदम्बा ने स्वप्न में उन्हें आशीर्वाद दिया। अगले दिन जब वे अपने खेत में खुदाई कर रहे थे, तो उन्हें स्वर्ण मुद्राओं से भरे सात कलश मिले। इससे उन्होंने 2,000 घोड़े खरीदे और 1,000 सैनिक रख लिये। उन्होंने ग्रामवासियों तथा यात्रियों की सुविधा के लिए अनेक मन्दिर, धर्मशाला तथा कुएँ बनवाये। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी।

    यह देखकर निजाम ने उन्हें ‘मनसबदार’ का पद देकर शिवनेरी किला तथा निकटवर्ती क्षेत्र दे दिया। अब वे मालोजी राव भोंसले कहलाने लगे। उधर लखूजी की पत्नी अपने पति पर दबाव डाल रही थी कि जीजा का विवाह मालोजी के पुत्र शहाजी से कर दिया जाये। लखूजी ने बड़ी अनिच्छा से यह सम्बन्ध स्वीकार किया। कुछ समय बाद मालोजी का देहान्त हो गया और उनके बदले शहाजी निजाम के अधीन सरदार बनकर काम करने लगे।

    जीजाबाई के मन में यह पीड़ा थी कि उसके पिता और पति दोनों मुसलमानों की सेवा कर रहे हैं; पर परिस्थिति ऐसी थी कि वह कुछ नहीं कर सकती थी। जब वह गर्भवती हुई, तो उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पुत्र को ऐसे संस्कार देंगी, जिससे वह इस परिस्थिति को बदल सके।

    शहाजी प्रायः युद्ध में व्यस्त रहते थे, इसलिए उन्होंने जीजाबाई को शिवनेरी दुर्ग में पहुँचा दिया। वहाँ उन्होंने रामायण और महाभारत के युद्धों की कथाएँ सुनीं। इससे गर्भस्थ बालक पर वीरता के संस्कार पड़े।

    19 फरवरी, 1630 को शिवाजी का जन्म हुआ। आगे चलकर छत्रपति शिवाजी ने मुगल राजशाही को परास्त कर 6 जून, 1674 को भारत में हिन्दू पद पादशाही की स्थापना की। जीजाबाई मानो इसी दिन के लिए जीवित थीं। शिवाजी को सिंहासन पर विराजमान देखने के बारहवें दिन 17 जून, 1674 (ज्येष्ठ कृष्ण 9) को उन्होंने आँखें मूँद लीं।