स्वामी विवेकानंद जी ने धर्म सभा में कैसे भारत का परचम लहराया?

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    स्वामी विवेकानन्द जी के विचार

    स्वामी विवेकानंद जी ने धर्म सभा में कैसे भारत का परचम लहराया? आज स्वामी विवेकानन्द जयन्ती है। “हम आलसी हैं, हम काम नहीं कर सकते, हम आपस में जुड़े नहीं रह सकते, हममें आपस में प्रेम भाव नहीं है, हम बड़े स्वार्थी हैं, घृणा और द्वेष के बिना हम कोई तीन भी एक साथ नहीं बैठ सकते, बहुत सी बातों में हम तोता रटन्त की तरह बोल तो लेते हैं, परन्तु उसे क्रियान्वित नहीं करते। कहना, किन्तु करना नहीं? यह हमारा स्वभाव बन गया है।” ये विचार थे स्वामी विवेकानन्द जी के।

    सरहद का साक्षी @ आचार्य हर्षमणि बहुगुणा

    स्वामी विवेकानन्द जी का प्रादुर्भाव कोलकात्ता में श्री विश्वनाथ दत्त और श्रीमती भुवनेश्वरी देवी के घर सोमवार बारह जनवरी सन् 1863 को हुआ था इस अद्भुत बालक को बचपन में नरेंद्र नाथ दत्त या नरेन के नाम से जाना जाता था। मकर संक्रांति के दिन आपका उदय संक्रमण काल में हुआ। यह एक अद्भुत संयोग था। आपके पिता एक विचारक, उदार, गरीबों के लिए सहानुभूति रखने वाले, धार्मिक व सामाजिक विषयों में व्यावहारिक व रचनात्मक दृष्टि कोण से परिपूर्ण कोलकाता उच्च न्यायालय में अटार्नी-एट-ला थे। मां सरल व धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत महिला थी। इन्हीं का प्रभाव था आपके जीवन पर। करुणा और कोमल भावनाओं का सागर था आपका मन जो आयु के साथ बढता ही रहा। किसी के उकसाने पर आपने पिता जी से एक बार पूछा- “आपने मेरे लिए क्या सम्पत्ति रखी है” पिता क्या जवाब देते, पर बालक जो अबोध था, मात्र चौदह वर्ष का, दर्पण के सम्मुख ले गए और कहा- “तुम स्वयं को देखो, सुंदर सुगठित शरीर, तेजस्वी आंखें, निडर मन और तीक्ष्ण बुद्धि, क्या यह सब मेरी दी हुई सम्पत्ति नहीं है? ” इन संस्कारों ने बालक को युवक बनाया।

    1884 में पिताजी का निधन क्या हुआ कि आपके परिवार पर अनेक विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा, जिन्होंने सम्पन्नता देखी एकाएक इस विपत्ति ने विपन्नता में जीवन यापन को बिवस कर दिया। इस अवस्था में स्वामी रामकृष्ण परमहंस जो दक्षिणेश्वर के पुजारी थे, जिनसे पहले भी मिल चुके थे, ने पारिवारिक कष्ट निवारण के लिए दक्षिणेश्वर में मां काली से अपने आप प्रार्थना करने का सुझाव दिया। आप मन्दिर गये, वहां क्या देखते हैं कि मां चिन्मयी स्वयं वरदान देने के लिए खड़ी हैं। क्या विचित्रता थी कि पेट की ज्वाला की शान्ति हेतु कुछ नहीं मांगा! केवल ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की प्रार्थना की। इस तरह तीन बार श्री राम कृष्ण ने मां की शरण में भेजा और तीनों बार कोई भौतिक सहायता की मांग नहीं की। अन्तत: स्वामी श्री राम कृष्ण के आशीर्वाद से घर में सामान्य भोजन व वस्त्र की कमी नहीं आई। न जाने यह ऐतिहासिक पुरुष किस माटी का बना था जिसने स्वामी रामकृष्ण परमहंस का दिल जीत लिया। अगस्त 1886 में स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस के देहावसान के बाद वराह नगर में एक पुराने खण्डहर के पास बहुत से युवा नरेंद्र नाथ के नेतृत्व में एकत्रित हुए और ‘रामकृष्ण मठ’ की नींव रखी और 1988के बीतते-बीतते आप मठ से दूर अपने जीवन के ध्येय की पिपासा में भ्रमण हेतु निकल गये। इस भ्रमण काल में आपने भारत की दशा का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया। वास्तव में पहले भारत बहुत समृद्ध रहा तभी तो विदेशियों ने आकर इसे लूटा।

    सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति, आध्यात्म से परिपूर्ण है यह किसी से छिपा नहीं है। कन्याकुमारी में अद्वितीय ध्यान किया, अनेकों सन्त महात्माओं से भेंट की, ‘पतंजलि के महाभाष्य’ का अध्ययन किया और मैसूर के महाराज ने आपको पश्चिमी देशों में सनातन धर्म की शिक्षा देने के लिए आर्थिक सहायता देने का आश्वासन दिया। आप विचार करते रहे। इसी मध्य आपने संन्यास ग्रहण कर ‘विवेकानन्द’ स्वयं का नाम करण किया । होगा भी क्यों नहीं? जो नरेन्द्र रह कर परमार्थ का चिन्तन करेगा वही तो विवेकी है, और वही बन सकता है विवेकानन्द! और हिन्द महासागर के इस छोर पर पश्चिम जाने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। तब अमरीका के शिकागो में होने वाले ‘सर्व धर्म महासभा’ में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का अपना निर्णय पूरा करने का संकल्प लेकर स्वामी श्री रामकृष्ण की आध्यात्मिक पत्नी मां शारदा देवी से अनुमति व आशीर्वाद प्राप्त किया तथा अपनी जाने की तैयारी में लग गए।

    खेतड़ी महाराज ने अपने निजी सचिव को स्वामी जी की यात्रा की तैयारी करने और उन्हें मुंबई से विदा करने के लिए भेजा। 31 मई1893 को आपकी अमरीका यात्रा प्रारम्भ हुई। अमरीका में यह धर्म संसद 11सितम्बर से प्रारम्भ हुई। सात हजार श्रोताओं से भरे विशाल सभा कक्ष में अनेक देशों के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि उपस्थित थे। मन ही मन बहुत घबराहट हो रही थी परन्तु मां शारदा को नमन कर अपना व्याख्यान इन शब्दों से प्रारम्भ किया , — ‘अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों’ यह थी भारत मां की शक्ति। और तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हाल गूंजता रहा।

    इसके बाद सारे विश्व को ज्ञात है कि स्वामी विवेकानंद जी ने उस धर्म सभा में कैसे अपना नहीं भारत का परचम लहराया। उनका कहना था कि “धर्म ही भारत की आत्मा है। धर्म में ही भारत के प्राण हैं, और जब तक हिन्दू जाति अपने पूर्वजों की धरोहर को नहीं भूलती, विश्व की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं है जो उसे नष्ट कर सके। जब तक शरीर का रक्त शुद्ध और सशक्त रहता है, तब तक उस शरीर में किसी रोग के कीटाणु नहीं रह सकते।

    हमारे शरीर का रक्त आध्यात्म है। जब तक यह निर्बाध गति से, सशक्त, शुद्ध तथा जीवन्तता से प्रवाहित होता रहेगा, तब तक सब कुछ ठीक ठाक रहेगा, राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और दूसरे कई बड़े दोष , यहां तक की देश की दरिद्रता भी सब ठीक हो जाएगी यदि रक्त शुद्ध है। हमारी जाति का लक्ष्य कभी राजनीतिक महानता या सैन्य शक्ति नहीं रहा, वह कभी नहीं रहा और — कभी नहीं रहेगा।” क्या महानता थी इस महात्मा की। वह चाहते थे कि शिक्षा हमारी मूल भूत आवश्यकता है, अतः शिक्षा! और केवल शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है, शिक्षा से ही आत्म विश्वास पैदा होता है। शिक्षा का अभिप्राय ढेर सारी जानकारी एकत्रित करना नहीं अपितु जीवन निर्माण व चारित्रिक विकास करना सच्ची शिक्षा है।

    ऐसा था उनका भारत के प्रति प्रेम। वे जानते थे कि अब उन्हें किसी दूसरे लोक को आलोकित करने के लिए प्रस्थान करना है, वह दिन था, ‘चार जुलाई सन् 1902’, प्रात: काल ध्यान किया, दोपहर को स्वामी प्रेमा नन्द जी के साथ घूमने निकले, वैदिक विद्यालय की योजना बनाई, सन्ध्या समय में अपने कक्ष में गये एक घण्टे ध्यान किया व फिर लेट गये और फिर लम्बी स्वांस लेकर अनन्त में विलीन हो गए।

    ऐसे भारत प्रेमी सन्तों की आज बहुत बड़ी आवश्यकता है। भारत और उसकी जनता के लिए स्वामी विवेकानन्द जी प्रेम की प्रति मूर्ति थे। जो भी उनके सम्पर्क में आए उन्होंने उसमें भारत के प्रति प्रेम जाग्रत कर दिया। ऐसे महामानव को उनकी जन्म तिथि पर कोटि – कोटि नमन करते हुए अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।