परोपकाराय पुण्यार्जनाय ‘एक सीख’; अपनी कमी पर हंसते हुए दूसरे की कमी पर रोएं

परोपकाराय पुण्यार्जनाय हेतु 'एक सीख'; अपनी कमी पर हंसते हुए दूसरे की कमी पर रोएं
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[su_dropcap size=”2″][/su_dropcap]ज का विचारणीय विषय हम सब मनुष्य हैं और परोपकाराय पुण्यार्जनाय ‘एक सीख’। अपनी कमी पर हंसते हुए दूसरे की कमी पर रोएं
“आज पांच अक्टूबर २०२१  है, हर दिन का अपना-अपना महत्व है। आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है विशेष कर एक ऐसे व्यक्ति के जीवन में जो प्राय: अपने मन से परोपकार की भावना से ओत-प्रोत होकर कर्म करता है। ( शायद मेरे लिए भी ) किसी सज्जन व्यक्ति ने कहा कि ‘अपनी कमियों को दूर करने का एक सरल उपाय है कि हम अपनी कमी पर हंसते हुए दूसरे की कमी पर रोएं। ‘ – जो व्यक्ति अपनी कमी पर रोता है और दूसरे की कमी पर हंसता है वह कभी भी अपनी कमी को दूर नहीं कर सकता। प्रसंग तब आया जब कभी दो तीन मित्र आपस में अतीत के चलचित्र को झांकते हुए वार्ता करते हैं। ऐसा ही प्रसंग एक अन्तिम संस्कार की यात्रा में आया, कभी कभी न चाहते हुए भी हम मन की बात कह जाते हैं। बहुत समयावधि व्यतीत हो गई जब एक अन्तिम संस्कार की यात्रा में जाना पड़ा, (वही मित्र आज एकत्रित हो गए।) कुछ लोग केवल लोक लाज के कारण इन यात्राओं में सम्मिलित होते हैं तो कुछ लोग अपना कर्त्तव्य समझ कर।

प्राय: शमशान घाट पर सुविधाओं की व्यवस्था नहीं होती, अतः जरूरत की आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करनी पड़ती है, मित्र मण्डली याद दिला रही थी उस दिन की, – कि जब शव दाह के लिए जगह ही नहीं मिली, तो जैसे-तैसे जगह बनी, पर घाट का कोई पत्थर ऐसा नहीं था जो बैठने लायक दिखाई पड़े, फिर अन्य मूलभूत सुविधाओं का प्रश्न ही नहीं था, ऐसे में क्रिया कर्ता का मुण्डन आवश्यक था पर क्या करें। किसी तरह मुण्डन हुआ, यह याद ताजा होकर मित्र मण्डली अवगत करवा रही थी कि उसका परिणाम क्या हुआ ?  जिसके प्रति अपना कर्त्तव्य समझ कर उपकार किया उसी ने कृतघ्नता का बरताव किया। पर क्या उपकार करना ही छोड़ दिया जाय ? यह प्रश्र रह- रह कर मन को कचोटता है। फिर याद दिलाया कि देवी पूजा के दौरान व्यक्ति धर्म कर्म छोड़ कर जिस पर उपकारार्थ सौ किलोमीटर दूर आया उसी ने कृतघ्नता कर सबसे पहले ऋण चुकाने के लिए कृतघ्नता का सहारा लेकर ही दुर्व्यवहार किया। जबकि यह सब जानते है कि इस संसार में खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ ही जाना है। जिसे हम अपना- अपना कह कर पुकारते हैं वह साथ जा ही नहीं सकता है।

आज समाज में यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि हम जिस पर उपकार कर रहे होते हैं वही सबसे पहले अपकारी होता है। विरोधी होता है। पर हमारे देश में एक बुरी धारणा घर कर गई है, शायद वह अंग्रेजों की देन है इसे हम समझ सकते हैं। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई व उसी के बल बूते पर भारत जैसे महान देश के लोगों को आपस में लड़ाया, आज उसी का दुष्परिणाम सब भोग रहे हैं। शायद वे अंग्रेजों के गुलाम या उनका रक्त उन अंग्रेजों की ही देन हों? (यदि इस दोष के दोषी कोई हों तो अपने दोष को दूर कर सकते हैं, शायद यह बात कुछ सुधार कारक हो जाय?) यहां कतिपय लोग घर के अभिभावक से बात न कर बच्चों को वरगलाने का काम करते हैं। और घर के घर बर्वाद कर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करते हैं। अपने मन का मैल दूसरों के हरे भरे आंगन में उण्डेल कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, ऐसे लोगों को पहिचानना भी बहुत कठिन है, वाणी मीठी पर मन दूषित।”

“आज जरूरत है कि हम समाज को कुछ दें पर हर मानव अपने स्वार्थ को ही देख रहा है, ऐन -केन प्रकारेण अपना हित हो या न हो? पर दूसरे का अहित जितना अधिक हो, वही समुचित है। व्यक्ति यदि कोई परोपकार कर रहा है तो उसका आभार न मान कर यह चिन्तन करना कि अमुक व्यक्ति का इसमें क्या लाभ है? और शायद इसी उहापोह में भलाई का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पा रहा है। हम अपनी कमी को दूर कैसे करें इस पर मन्थन की आवश्यकता है। एक उपाय है कि हम स्वयं अपनी कमी के विषयक सोचते रहें, सोचते रहें तो अवश्य हल निकलेगा। समाज के उन लोगो से आग्रह जो दूसरे के घरों में आग लगाने का काम कर रहे हों कि इस तरह के अनैतिक कर्म से सिद्धि नहीं मिल सकती है, अधिक से अधिक यह जन्म तो बिगड़ेगा अगला जन्म भी नहीं सुधर सकता। अतः ऐसा प्रयास करें कि दूसरा व्यक्ति पनपने के लिए अग्रसर हो, आगे बढ़े। सब लोग यदि आगे बढ़ेंगे तो हमारा ही हित होगा। जब अभाव ही नहीं होगा तो हमें कोई परेशान तो नहीं करेगा।

इस परिप्रेक्ष्य में एक कहानी याद आ रही है, उसे अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं, कृपया आनन्द लीजिए। ”

भलाई का जवाब बुराई से।

एक व्यक्ति एक जंगल से गुजर रहा था कि उसने झाड़ियों के बीच एक सांप को फंसा हुआ देखा। सांप ने उससे सहायता मांगी तो उसने एक लकड़ी की सहायता से सांप को वहां से निकाला। बाहर आते ही सांप ने उस व्यक्ति से कहा कि मैं तुम्हें डसूंगा।

उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार किया तुम्हें झाड़ियों से निकाला और तुम मेरे साथ गलत व्यवहार करना चाहते हो। सांप ने कहा कि हां ‘भलाई का जवाब बुराई ही है’। उस आदमी ने कहा कि चलो किसी से फैसला करवाते हैं। चलते चलते एक गाय के पास पहुंचे और उसको सारी बातें बताकर फैसला पूछा तो उसने कहा कि वाकई ‘भलाई का जवाब बुराई ही है’ क्योंकि जब मैं जवान थी और दूध देती थी तो मेरा मालिक मेरा ख्याल रखता था और चारा पानी समय पर देता था। लेकिन अब मैं बूढ़ी हो गई तो उसने भी ख्याल रखना छोड़ दिया है।

यह सुन कर सांप ने कहा कि अब तो मैं डसूंगा, उस आदमी ने कहा कि एक और फैसला ले लेते हैं। सांप मान गया और उन्होंने एक गधे से फैसला करवाया। गधे ने भी यही कहा कि ‘भलाई का जवाब बुराई ही है,’ क्योंकि जब तक मेरे अंदर दम था मैं अपने मालिक के काम आता रहा जैसे ही मैं बूढ़ा हुआ उसने मुझे भगा दिया। सांप उसको डंसने ही वाला था कि उसने मिन्नत करके कहा कि एक आखरी अवसर और दो! सांप के हक़ में दो फैसले हो चुके थे इसलिए वह आखरी फैसला लेने पर मान गया। अबकी बार वह दोनों एक बंदर के पास गये और उसे भी सारी बातें बताई और कहा फैसला करो। बंदर ने आदमी से कहा कि मुझे उन झाड़ियों के पास ले चलो, सांप को अंदर फेंको और फिर मेरे सामने बाहर निकालो, उसके बाद ही मैं फैसला करूंगा। वह तीनों वापस उसी जगह पर गये, उस आदमी ने सांप को झाड़ियों में फेंक दिया और फिर बाहर निकालने ही लगा था, कि बंदर ने मना कर दिया और कहा कि ‘उसके साथ भलाई मत करो, ये भलाई के काबिल नहीं है’।

वास्तव में यकीन ¾मानिये वह बंदर हम भारतीयों से अधिक बुद्धिमान था। हम भारतीयों को एक ही तरह के सांप बार-बार भिन्न-भिन्न नामों और अन्य तरीकों से डंसते हैं लेकिन हमें ये खयाल नहीं आता कि ये सांप हैं, उनके साथ भलाई करना अपने आप को कठिनाई में डालने के बराबर ही है।

(कहानी पुरानी तो है, लेकिन सटीक है।) ‘ सिर्फ सनातन हिंदू धर्म के लोग इस पर सुन्दर विचार कर सकते हैं। वैसे यह पोस्ट सभी मताब्लम्बियों के लिए है पर अन्तिम संस्कार की यात्रा का प्रसंग शायद हिन्दू धर्म से संबंधित है।

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