‘पात्र का अभिप्राय है कि जो गिरने न दे, ‘पतनात् त्रायते इति पात्रम् ‘ और सुपात्र और भी योग्य।
दान, ज्ञान सब सत्पात्र को देना चाहिए, तभी उसका पुण्य फल मिलता है।
सरहद का साक्षी@आचार्य हर्षमणि बहुगुणा
तभी तो शास्त्र उपदेश देते हैं कि –
पात्रे दत्तं च यद्दानं तल्लक्षगुणितं भवेत्।
दातु: फलमनन्तं स्यान्न पात्रस्य प्रतिग्रह: ।
अपात्रे सा च गौर्दत्ता दातारं नरकं नयेत् ।।
सत्पात्र को दिया दान व्यर्थ नहीं जाता है, इस संदर्भ में यह दृष्टान्त विचारणीय एवं अनुकरणीय है।
“किसी नगर में दो भाई रहते थे, अपने परलोक को सुधारने की अभिलाषा से दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले। धन संपत्ति की कमी नहीं थी, अतः पुण्य अर्जित करने की इच्छा से बिना सोचे विचारे धन बांटा और तीर्थ सेवन हेतु चल दिए। रास्ते में देखा कि एक निर्धन व्यक्ति ठण्ड से ठिठुर रहा था और अब इनके पास मात्र अपनी आवश्यकता पूर्ति का ही धन बचा हुआ था ऐसे में उसकी कोई भी मदद नहीं कर सकते थे। उसी समय वे क्या देखते हैं कि एक गरीब गृहस्थी उस मार्ग से जा रहा था उसने ठण्ड से ठिठुरते हुए उस व्यक्ति को देखा और अपने बदन से अपना कोट उतारा व उस व्यक्ति को दे दिया। यह देख कर छोटे भाई ने कहा – भैया मुझे लगता है कि इस व्यक्ति के दान पुण्य की तुलना में हमारी सारी सम्पत्ति का दान व्यर्थ है। इस पर बड़ा भाई कुछ न कह सका। उन्होंने महसूस किया कि दान सुपात्र को दिया हुआ ही सार्थक होता है।
आज ज्ञात होता है कि हमने पात्र की पहचान के बिना ही जो कुछ भी दान किया या दिया वही हमें नारकीय जीवन जीने के लिए बिवस कर रहा है, अतः आवश्यकता है सुपात्र की। जिससे जो भी वस्तु दी जा रही है वह योग्य एवं अर्ह व्यक्ति को ही मिले। तभी हमारा कल्याण संभव हो सकता है।