मन कुछ बेचैन था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए! सुबह 4:00 बजे उठने की आदत है। पूरे परिवार की लाइफस्टाइल दूसरे ढंग की है। 8:00 बजे से पहले कोई बिस्तर नहीं छोड़ता।
चित्त को बहलाने के लिए पुरानी मैगजींस को टटोलने लगा। प्रतिष्ठित पत्रिका लोक गंगा का वर्षों पुराना विशेषांक मिल गया। पन्ने पलटता गया। लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों के लेख उस पर छपे थे लेकिन न रुचि उत्पन्न हुई, न उत्सुकता।
अचानक अपने परिवेश टिहरी -उत्तरकाशी के बारे में एक जाने -पहचाने अजनबी का लेख सम्मुख आया। उन्हें केवल किताबों में पढ़ा था, चित्र में देखा था लेकिन मूर्त रूप में कभी उस मनीषी के दर्शन नहीं हुए।
जी हां! बात कर रहा हूं हिंदी के महान साहित्यकार, कवि और दार्शनिक नागार्जुन की। लगभग 80 वर्ष पूर्व जब उन्होंने टिहरी-उत्तरकाशी की यात्रा की थी तो वह समय का टिहरी और उत्तरकाशी कैसा रहा होगा! यह उत्सुकता मन में जागी और देखते ही देखते पूरा विस्तृत लेख पढ डाला।
उस लेख को पढ़ते समय अनेकों बिंब मेरे मस्तिष्क में उत्पन्न होने लगे। महाकवि विद्यापति मिश्र (नागार्जुन) और उनकी कविताएं, बिहार के अकाल पर उनकी रचनाएं, उनके समकालीन महान साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन जी की यात्राएं भूले-बिसरे मस्तिष्क में उजागर होने लगी।
उसी सापेक्ष में अपनी छोटी -मोटी यात्राओं का तुलनात्मक अध्ययन भी मस्तिष्क करने लगा लेकिन सबसे अधिक उत्सुकता मुझे अपने क्षेत्र विशेष टिहरी- उत्तरकाशी के बारे में जानने की थी। सन् 1943 में हमारा टिहरी और उत्तरकाशी कैसा था? नागार्जुन बताते हैं कि जब वह बिहार से ऋषिकेश आए तो सिंधी धर्मशाला में टिके। ऋषिकेश उस समय पावन और पवित्र नगर होने के साथ-साथ इस शहर में कुष्ट रोग पीड़ितों की इतनी भरमार थी कि यदि ऋषिकेश के बजाय इसे कोढ़ीकेश कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वैदिक संतो, महान विचारकों, प्रकांड विद्वानों के साथ-साथ नागपंथी साधुओं का भी इस नगर पर प्रभाव रहा। कुछ समय ऋषिकेश में रहकर जब वो टिहरी की तरफ चले तो ऋषिकेश से शाम तक वह बमुश्किल पंहुचे। बताते हैं कि उस समय लारी से यात्रा की। एक रुपए में ढ़ाइ सेर आटा, एक पाव घी और 4 सेर आलू उस समय मिलते थे।
नागार्जुन हमारे तत्कालीन टिहरी- उत्तरकाशी के आसपास की घाटियों, प्राकृतिक सुंदरता, रहन-सहन, खानपान, विकट परिस्थितियां और तत्कालीन दिशा दशा पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं।लोगों के पहनावा, मुख्य व्यवसाय खेती -बाड़ी और पशुपालन, मातृशक्ति की दशा के अलावा अपनी गढ़वाल की यात्राओं से टिहरी गढ़वाल की यात्राओं का भी तुलनात्मक अध्ययन करते हुए बताते हैं कि टिहरी उस समय भी गढ़वाल की अपेक्षा अत्यंत पिछड़ा हुआ था। उस समय तीर्थयात्री गंगोत्री यमुनोत्री धाम में आते थे। पर्यटकों के बारे में उस समय कोई जानता भी नहीं था। धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत होकर अनेक संत महात्मा और विद्वान यहां आते थे। नागार्जुन टिहरी के अलावा भी नगुण, डुंडा, उत्तरकाशी, मनेरी, धराली, गंगोत्री और अपनी नीलम की यात्रा के बारे में भी बताते हैं उत्तरकाशी के प्राकृतिक सौंदर्य से हुए अभिभूत हुए। निर्मल जल धाराओं के प्रति आकर्षित होकर पत्थर की शिला पर बैठकर गीत भी गुनगुनाने लगे थे।
सित दुकूल सम फेनपुंज से प्रावृत तव श्यामला काया,
दूर देश से मेरे मन को खींच यहां पर ले आया।
समा रहे हैं तेरी कल कल ध्वनि में शत-शत मनहर छंद,
बैठा हूं मैं कृष्ण शिला पर खोल कान आंख कर बंद।
नागार्जुन इस यात्रा के दौरान राहुल सांकृत्यायन भी उनके साथ थे। सांकृत्यायन जी ने तक समय “नए भारत के नए नेता” पुस्तक का अधिकांश भाग यहीं पर तैयार किया और गढ़वाल के तमाम रास्ते, कैलाश मानसरोवर की परिक्रमा, लेह लद्दाख की स्थिति, थोंलिग आदि के बारे में भी विस्तृत जानकारी प्रदान की।
टिहरी- उत्तरकाशी में उस समय भी दक्षिण भारत के अनेकों तपस्वी यहां पधारते थे और उनकी धाराप्रभाव संस्कृत और अंग्रेजी को सुनकर वह मंत्र मुक्त हुए थे। तपोवन स्वामी उनमें प्रतिष्ठित थे। स्वामी रामतीर्थ जी के टिहरी में जल समाधि लेने के कारण और विचारधारा से प्रभावित होने के कारण, नागार्जुन इस क्षेत्र से अभिभूत हुए।
80 साल पूर्व टिहरी और उत्तरकाशी की जो यह स्थिति और परिस्थितियां रही होंगी, होश संभालने के बाद 50 वर्ष से मेरी स्मृति पटल में भी आने लगे। समानांतर दृश्य उत्पन्न हैं। समय कितना बलवान होता है! प्रकृति, संस्कृति, नियति और प्रवृत्ति में कितना अंतर आ जाता है! यक्ष प्रश्न है।
महान साहित्यकारों, उनकी पुस्तकों, समकालीन साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा हम अपने पुरातन की सम्यक जानकारी हासिल कर सकते हैं। इसी अनुक्रम में हम अनुशीलन करने का प्रयत्न करते हैं और कभी- कभी विचारों के अनंत क्षितिज को पार करते हुए शून्य तक यात्रा कर देते हैं। तो कभी अपनी भावनाओं के उद्रेक के कारण अश्रुधाराओं द्वारा भी अभिसिंचित करते हैं।
अपने जीवन काल में हम जिन लोगों, स्थानों को देखा, समझा, सुना,उनके बारे में कोई बात करता है या पढ़ता हूं तो उत्सुकता चरम बिंदु पर पहुंच जाती है।
वर्षों पूर्व छात्र जीवन में ज्ञान, अनुभव या चेतना की कमी के कारण, एक सपने की तरह बिम्ब अंकित रहते हैं लेकिन जब याद आते हैं, या याद किए जाते हैं, या याद दिलाए जाते हैं तो हूबहू वह दृश्य प्रत्यास्मरण हो जाते हैं।
सन 1983 में जब मैं परास्नातक कक्षाओं में अंग्रेजी साहित्य का छात्र था तो मात्र एक लेक्चर हमें प्रोफेसर दाता राम पुरोहित जी ने दिया था। उस समय वह अपना शोध कार्य कर रहे थे। उनका दिया हुआ वह लेक्चर थॉमस हार्डी के उपन्यासों में “भाग्य और संयोग” पर आधारित था। जब मैं प्रोफेसर डी.आर. पुरोहित को पढ़ता हूं तो उनका पूरा लेक्चर, उस समय के अपने सहपाठी,डी.ए वी कॉलेज का वह परिसर, वह कक्षा-कक्ष, अपने विद्वान प्रोफेसर्स, उनका पढ़ाने का तरीका, उनका विशद ज्ञान,और समकालीन बिंब मानस पटल पर उजागर हो जाते हैं।
यही बात नागार्जुन जी की टिहरी- उत्तरकाशी की इस यात्रा विवरण को पढ़ने से प्राप्त हुई। टिहरी गढ़वाल का मूल निवासी होने के कारण, टिहरी और उत्तरकाशी का चप्पा- चप्पा मेरा घुमा हुआ है। इसलिए और भी रोचक लगा। नागार्जुन के बहाने रवींद्रनाथ टैगोर, राहुल सांकृत्यायन यहां तक कि बिहार मधुबनी क्षेत्र के मैथिली कवि विद्यापति जो कि अपने समय के एक महान कवि थे, उनके बारे में भी पुनर्स्मरण को आया।
पढ़ते-पढ़ते न जाने का सुबह के 10:00 बज गए। पत्नी ने टोका कि आज पढ़ते ही रहोगे ! नाश्ता ठंडा हो गया है! लेकिन मैं तो असली नाश्ता कर चुका था और वह उदासी, बेचैनी, आलस्य, अकर्मण्यता, इन चार घंटों में समाप्त हो गई, लेकिन टेलीविजन पर नजर पड़ते ही दूसरे दृश्य मस्तिष्क में उत्पन्न होने लगे। किसी महान कवि की पंक्तियों का यह स्मरण हो आया,
तमीरे हैं, खैराते हैं औ’ तीरथ हज भी होते हैं।
यों खून के धब्बे दामन से ये पैसे धोते हैं।
कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
(कवि कुटीर)
सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल।