अग्नि पथ और अराजकता, जिम्मेदार कौन ?

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    उत्तराखण्ड एवं उत्तर प्रदेश के लिए भारतीय सेना में अग्निपथ की भर्ती के लिए भर्ती रैलियों की तिथियां घोषित, देखें कब और कहां है अग्निवीरों की भर्ती
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    चंद दिन पूर्व राष्ट्रीय सरकार ने एक नई सेना भर्ती योजना की घोषणा की। इस मुद्दे पर कहना तो नहीं चाहता था क्योंकि प्रकरण में हर तरफ से राजनीति ज्यादा लग रही है।

    सरहद का साक्षी@कवि:सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’

    पक्ष- विपक्ष और कुपक्ष (उपद्रवी) सब अपनी बात पर अड़े हुए हैं। अराजकता का माहौल उत्पन्न कर रहा है। जगह-जगह रेलगाड़ियों पर आग लगाई जा रही है।थाने फूके जा रहे हैं। जनता यह नंगा नाच देख रही है। यह किसी लोकतांत्रिक देश के लिए अपशगुन से कम नहीं है।

    पूर्ण बहुमत की सरकार होने के कारण सरकारी पक्ष का अहं भी कहीं न कहीं नजर आता है और विपक्ष को राजनीतिक रोटियां सेकने का मौका मिल जाता है। जिसके साथ में कुपक्ष(असामाजिक तत्वों) को अराजकता फैलाने का अवसर भी प्राप्त हो जाता है।विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखा जाए तो तत्काल प्रभाव से बेरोजगारी दूर करने के लिए यह एक आंशिक उपाय लगता है लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव सुसंगत नजर नहीं आते हैं।
    सर्वप्रथम योजना का नाम ही संगत नही है। यदि ‘अग्निपथ’ की जगह ‘शौर्य पथ’  नाम दिया जाता तो लाजमी होता। अग्निपथ की आड़ में कुछ सिरफिरे अराजकता फैला रहे हैं। हिंसक वारदात कररहे हैं और राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
    यदि हम दूसरे विश्वयुद्ध का उदाहरण लेकर चले तो विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने अंधाधुंध फौज में भर्तियां की। विधिवत उनको ट्रेनिंग करवा कर लड़ने के लिए फ्रंट पर भेजा गया। जो शहीद हो गए वह तो अमर हो गए और उनकी पीढ़ियां लाभ देती रही। कुछ लोग विद्रोह पर उतारू हो गए और आई एन ए में चले गए। मुकदमा चला, जीत गए। और उनकी भी पीढ़ियां सुख भोग रही हैं । लेकिन वह जाबांज सैनिक जो फ्रंट पर लड़ते रहे और  प्राणोत्सर्ग के लिए तत्पर रहे, विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों ने ‘फौज को कम करने के नाम पर’ उन्हें हटा दिया। हिंदुस्तान में ही लाखों सैनिक बेरोजगार हो गए और आधा शताब्दी तक तिल- तिल कर के जलते रहे। उन दयनीय फौजी परिवारों की दशा किसी को नहीं दिखाई दी। उन सैनिकों को आर्थिक और मानसिक वेदना सहनी पड़ी।
    आजादी के 42 वर्षों बाद, सन 1990 से उन सैनिकों ने सरकार ने ₹100 मासिक पेंशन देनी शुरू की। यदि इसे मासिक अनुदान कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा। उसके बाद पेंशन ढाई सौ रुपए, ₹500 हुई और अब उन्हें यदि कोई सैनिक या सैनिक विधवा जीवित हैं तो लगभग सौ साल की उम्र मे द्वारा जिला सैनिक कल्याण से दस हजार पेंशन प्राप्त हो रही है लेकिन पूरे जीवन भर द्वितीय विश्व युद्ध के वे सैनिक आर्थिक और मानसिक शोषण का शिकार रहे। लगभग 50 वर्षों तक किसी ने उनकी सुध तक नहीं ली जबकि एक दिन भी जेल गया हुआ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी या उनका आश्रित सुख- सुविधाओं के अलावा हजारों रुपए पेंशन प्राप्त करता गया।
    अंग्रेजों के बनाए हुए बुरे कानून तो आज भी देश में लागू हैं लेकिन अच्छे कानूनों को पलट दिया गया और रोजगार के नाम से देश को प्रयोगशाला बना दिया गया। कोई भी चाहे सिंहासन पर बैठा हो या दरवाजे पर खड़ा हो, सबकी अपनी अहमियत होती है। यह सोचने समझने की बात है।
    स्पष्ट रोजगार नीति के अभाव में सरकार चाहे कोई भी रही हो, अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए रोजगार योजनाओं को समय-समय पर लागू करती है। परमानेंट रोजगार की जगह अल्पकालिक, अंशकालिक, तदर्थ नामालंकरण करती है। इस प्रकार की प्रक्रिया से नियुक्त युवा जीवन भर तिल तेल करके जलने के लिए मजबूर होते हैं।
    संविधान कहता है,समान कार्य के लिए समान वेतन होना चाहिए। समान नियुक्ति प्रक्रिया होनी चाहिए और समानता का भाव होना चाहिए।
    अनेक विभागों में एक ही समय के लगे परमानेंट और अल्पकालिक कर्मचारियों के वेतन भत्तों, सेवा- शर्तों आदि में जमीन और आसमान का फर्क है। जबकि कार्य और दायित्वों में कोई फर्क नहीं है।
    शिक्षा विभाग में ही एक परमानेंट अध्यापक सत्तर-अस्सी हजार मासिक वेतन ले रहा है। उसी स्थान पर बरसों से कार्य करने वाला दूसरा अध्यापक( जिसे गेस्ट नाम दिया गया है) अल्प वेतनभोगी है। चौथाई के बराबर भी वेतन- भत्ते, सुविधाएं नहीं मिल रही हैं।
    जब सरकार विज्ञप्ति निकालेगी तो अग्निवीर के रूप में कार्य करने हेतु लाखों की संख्या में देश के युवा भर्ती के लिए आएंगे और उनमें से आंशिक लोगों को ही रोजगार मिल पाएगा। जैसे की नीति को समझा गया है, 4 वर्ष बाद 25 परसेंट को परमानेंट किया जाएगा और बाकी लोगों को आरक्षण अन्य सेवाओं में भर्ती के नाम पर वर्षों तक सड़कों पर छोड़ दिया जाएगा। फिर हल्ला होगा। आंदोलन होगा। सरकार के कानों में कुछ सुनाई देगा। कैसी व्यवस्थाएं होंगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है। इतना जरूरी है कि कोर्ट -कचहरी वालों का भला हो जाएगा।
    सरकार की नीतियां पारदर्शी होनी चाहिए। समान और समतामूलक समाज के अनुरूप होनी चाहिए। व्यवस्थाएं, नियम कानून, एक समान होने चाहिए। उनका आदर किया जाना चाहिए। पालन किया जाना चाहिए। न कि वोट बैंक के लिए ही उल्लू जुनून नीतियां बनाई जाएं। आंदोलन के नाम पर आगजनी की जाए, लोगों को भड़काया जाए या रोजगार के नाम पर युवाओं का शोषण किया जाए, यह कोई एक स्वस्थ परंपरा नहीं कही जा सकती है।
    सरकार से अपेक्षा है कि इस योजना पर पुनर्विचार करे। प्रतिवर्ष परमानेंट नियुक्ति प्रक्रिया जारी रखें। पदों के अनुरूप नियुक्तियां करें और देश के नागरिकों के हितों की रक्षा करें। इसी में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का मोक्ष छुपा है।