आज का इतिहास (11 फरवरी)- समर्पण-दिवस: जब सेल्यूलर जेल राष्ट्र को समर्पित हुई

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    अंग्रेज लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन के बड़े नेताओं को सामान्य जेल की बजाय ऐसे स्थान पर भेजना चाहते थे, जहाँ से भागना असम्भव हो तथा वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जायें। इसके लिए उन्हें समुद्र से घिरा अन्दमान द्वीप समूह ठीक लगा। यहाँ साँप, बिच्छू से लेकर विषैले मक्खी-मच्छरों तक की भरमार थी। जंगलों में खूंखार वनवासी बसे थे। अतः यहाँ से भागने की कल्पना भी कठिन थी। अंग्रेजों ने 10 मार्च, 1858 को राजनीतिक बन्दियों तथा अन्य अपराधियों का पहला दल वहाँ भेजा। इनकी संख्या 200 थी। इसके बाद 441 बन्दियों को और भेजा गया।

    राजनीतिक बन्दी अच्छे परिवारों से होते थे। अनेक तो जमींदार, नवाब, लेखक और पत्रकार थे; पर इनसे ही जंगल साफ कराये गये। रात में इन्हें खुले अहाते में रखा जाता था। आगे चलकर वहाबी आन्दोलन, मणिपुर के स्वतन्त्रता सेनानी तथा बर्मा से भी बन्दियों को वहाँ लाया गया। संख्या बढ़ने पर अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में ‘सेल्यूलर जेल’ बनाने का निर्णय किया। 13 सितम्बर, 1896 को शुरू हुआ निर्माण कार्य 1906 में जाकर पूरा हुआ।

    साढ़े तेरह X सात फुट आकार की 689 कोठरियों वाली तीन मंजिली जेल में साइकिल की तीलियों की तरह फैले सात खण्ड थे। इनमें क्रमशः 105, 102, 150, 53, 93, 60 तथा 126 कोठरियाँ थी। इनकी रचना ऐसी थी, जिससे कैदी एक-दूसरे को देख भी न सकें। एक खण्ड की कोठरियों का मुँह दूसरे खण्ड की पीठ की ओर था। बीच में स्थित केन्द्रीय मीनार पर हर समय सशस्त्र पहरा रहता था। कोठरियों पर मजबूत लोहे का जालीदार दरवाजा होता था। फर्श से नौ फुट ऊपर तीन X एक फुट का रोशनदान था। सोते समय भी कैदी पर रक्षकों की निगाह बनी रहती थी।

    हर खण्ड को अलग से बन्द किया जाता था। सातों के गलियारे केन्द्रीय मीनार पर आकर समाप्त होते थे, वहाँ लोहे का एक भारी दरवाजा था। जेल में आना-जाना इसी से होता था। यों तो उस जेल में एक साथ 21 सन्तरी पहरा देते थे; पर जेल की रचना ऐसी थी कि आवश्यकता पड़ने पर एक सन्तरी ही पूरी जेल पर निगाह रख सकता था।

    इस जेल में भारत के अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानी बन्दी रहे, जिनमें सावरकर बन्धु, होतीलाल वर्मा, बाबूराम हरी, पंडित परमानन्द, पृथ्वीसिंह आजाद, पुलिन दास, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, गुरुमुख सिंह, भाई परमानन्द, लद्धाराम, उल्हासकर दत्त, बारीन्द्र कुमार घोष आदि प्रमुख थे। बन्दियों को कठिन काम दिया जाता था, जो प्रायः पूरा नहीं हो पाता था। इस पर उन्हें कोड़े मारे जाते थे। हथकड़ी, बेड़ी और डण्डा बेड़ी डालना तो आम बात थी।

    यातनाओं से घबराकर अनेक कैदी आत्महत्या कर लेते थे। कई पागल और बीमार होकर मर जाते थे। खाने के लिए रूखा-सूखा भोजन और वह भी अपर्याप्त ही मिलता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दिनों में साढ़े तीन साल यहाँ जापान का कब्जा रहा। इस दौरान सुभाषचन्द्र बोस ने 29 दिसम्बर, 1943 को जेल का दौरा किया। उन्होंने अन्दमान में तिरंगा फहराया तथा अन्दमान और निकोबार द्वीपों को क्रमशः स्वराज्य और शहीद द्वीप नाम दिया।

    1947 के बाद इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की प्रबल माँग उठी; जो 32 साल बाद पूरी हुई। 11 फरवरी, 1979 को जनता पार्टी के शासन में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने यहाँ आकर इस पवित्र सेल्यूलर जेल को प्रणाम किया और इसे ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित किया।

    11 फरवरी/जन्म-दिवस: आयुर्वेदाचार्य पंडित रामनारायण शास्त्री

    एक सामान्य ग्रामीण परिवार में जन्म लेकर देश के अग्रणी आयुर्वेदाचार्य के नाते प्रसिद्ध हुए पंडित रामनारायण शास्त्री का जन्म वसंत पंचमी (11 फरवरी, 1913) को मध्य प्रदेश में महू के पास डोंगरगांव में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा डोंगरगांव में प्राप्त कर वे ग्वालियर आ गये। यहां उन्होंने आयुर्वेद का अध्ययन कर आयुर्वेद शास्त्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहां के प्रसिद्ध वैद्य श्री रामेश्वर शास्त्री के पास बैठने से उन्हें पुस्तकीय ज्ञान के साथ प्रत्यक्ष अनुभव भी भरपूर हुआ। इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के हापुड़ से आयुर्वेद विज्ञान शिरोमणि की उपाधि भी सम्मान सहित प्राप्त की।

    बचपन से ही सामाजिक प्रवृत्ति के होने के कारण छात्र जीवन में वे ‘महू नवयुवक मनोरंजन केन्द्र’ और ‘प्रताप सेना संघ’ से जुड़ गये। अध्ययन पूरा कर उन्होंने ‘नार्मदीय धर्मार्थ न्यास’ के औषधालय से चिकित्सा सेवा प्रारम्भ की। कुछ ही समय में उनका यश फैल गया और उनकी गिनती देश के प्रमुख वैद्यों में होने लगी। अब वे इंदौर के अपने निवास से कार्य करने लगे। वे अखिल भारतीय आयुर्वेद सम्मेलन के कई बार अध्यक्ष रहे। उनकी सेवाओं के लिए श्रीलंका सरकार ने उन्हें ‘आयुर्वेद मणि’ उपाधि से विभूषित किया।

    संघ से उनका परिचय 1943 में हुआ और वे इंदौर की मल्हारगंज शाखा में जाने लगे। इसके बाद संघ से निकटता बढ़ती गयी और वह उनके जीवन की धड़कन बन गया। अनेक दायित्वों के बाद वे मध्य भारत के प्रांत संघचालक बनाये गये। इस दायित्व का निर्वाह उन्होंने अंतिम समय तक किया।

    चिकित्सा का अच्छा कारोबार होते हुए भी शास्त्री जी ने देश और संघ पर आने वाली हर चुनौती को स्वीकार किया। वे कश्मीर आंदोलन और फिर गोरक्षा आंदोलन में जेल गये। संघ पर लगे पहले व दूसरे प्रतिबन्ध में पूरे समय वे कारागृह में रहे। आपातकाल में जेल में उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया; पर उन्होंने क्षमा मांगना स्वीकार नहीं किया। बहुत बीमार होने पर भी जेल वालों ने उन्हें अपनी आयुर्वेदिक दवाएं नहीं लेने दीं।

    शास्त्री जी की साहित्य के क्षेत्र में भी अच्छी पहचान थी। उन्होंने कई नाटक लिखे, उनका मंचन किया तथा उनमें स्वयं अभिनय भी किया। इंदौर की सभी साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में वे सक्रिय रहते थे। जब इंदौर से ‘स्वदेश’ नामक एक दैनिक हिन्दी समाचार पत्र निकालने की योजना बनी, तो उसकी स्थापना से लेकर संचालन तक में उनकी प्रमुख भूमिका रही। इन दिनों वह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई स्थानों से प्रकाशित होता है। स्वदेश की संचालन संस्था ‘श्री रेवा प्रकाशन लिमिटेड’ के वे आजीवन अध्यक्ष रहे।

    भारत और भारतीयता के प्रबल आग्रही शास्त्री जी सदा धोती-कुर्ता ही पहनते थे। पश्चिम के ठंडे देशों की यात्रा के समय भी यही उनका वेश रहा। वे जीवन भर निष्ठावान स्वयंसेवक रहे। उन्हें जो सूचना मिलती, वे उसका पूरी तरह पालन करते थे। एक कार्यक्रम में सब स्वयंसेवकों को परिवार सहित आने की सूचना दी गयी थी। शास्त्री जी की पत्नी उस समय पुत्र वियोग में अपनी आंखें खो चुकी थीं। फिर भी वे उन्हें अपने साथ लेकर आये।

    शास्त्री के मन में तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। श्री गुरुजी भी अपने व्यस्त प्रवास में से समय निकाल कर प्रतिवर्ष कुछ दिन इंदौर में उनके घर पर विश्राम व स्वास्थ्य लाभ करते थे। दूसरों के भीषण रोगों को ठीक करने वाले शास्त्री जी को आपातकाल में जेल में जिन रोगों ने घेर लिया था, वे उनके शरीर के स्थायी साथी बन गये और उन्हीं के कारण 28 दिसम्बर, 1979 को उनका देहावसान हुआ।

    (संदर्भ : मध्यभारत की संघ गाथा)

    11 फरवरी/ पुण्य-तिथि: ग्राहकों के हितैषी जगदीश प्रसाद सर्राफ

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक शाखा के साथ ही समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में काम करते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र है ग्राहकों का। व्यक्ति बड़ा हो या छोटा, वह किसी न किसी रूप में ग्राहक अवश्य होता है। इन ग्राहकों को उनके अधिकारों की जानकारी देकर उनके हितों के बारे में जागरूक करने का काम ‘ग्राहक पंचायत’ करती है। इस संस्था के काम को बिहार में प्रारम्भ करने का श्रेय श्री जगदीश प्रसाद सर्राफ को है।

    जगदीश जी का परिवार मूलतः राजस्थान का था; पर उनके पुरखे कारोबार के लिए बिहार आकर हजारीबाग, मधेपुरा आदि में बस गये। इस प्रकार जगदीश की जीवनयात्रा हजारीबाग से प्रारम्भ हुई। छात्र जीवन में ही वे स्वयंसेवक बने तथा उसी दौरान उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया।

    जगदीश जी हजारीबाग तथा पलामू में जिला प्रचारक और फिर गया में विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद 1974 में इन्हें ग्राहक पंचायत के काम को प्रारम्भ करने को कहा गया। तब तक यह काम केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित था। जगदीश जी ने उस काम को ठीक से समझा तथा फिर बिहार में प्रारम्भ किया। आपातकाल के बाद जब इस कार्य को पूरे देश में विस्तार हुआ, तो उत्तर भारत के सब लोग बिहार के काम को देखकर ही प्रेरणा लेते थे।

    जगदीश जी बहुत परिश्रमी और कठोर जीवन बिताने में विश्वास रखते थे। आपातकाल में सब प्रचारकों को भूमिगत रहकर सत्याग्रह आंदोलन को सफल बनाने के आदेश थे। अतः वे संगठन की योजनानुसार पटना में ही रहे। शारीरिक में रुचि होने के कारण संघ शिक्षा वर्ग में कई प्रमुख जिम्मेदारियां उन पर रहती थीं। समता और दंड उनके प्रिय विषय थे।

    संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शिक्षक और व्यवस्था में लगे कार्यकर्ता तो प्रातः चार बजे से लेकर देर रात काम करते हैं; पर जगदीश जी दोपहर में भी विश्राम नहीं करते थे। वे उस समय कुछ स्वयंसेवकों को विशेष अभ्यास कराते थे। ऐसे अधिकांश स्वयंसेवक आगे चलकर फिर अच्छे शिक्षक भी बनते थे।

    जब जगदीश जी को ग्राहक पंचायत का काम दिया गया, तो संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; पर उन्होंने इसकी चिन्ता न करते हुए अपने अनुभव के आधार पर ग्राहक पंचायत के बारे में कुछ पुस्तकें लिखीं तथा उन्हें बेचकर धन जुटाया। इससे वे प्रवास का व्यय निकालते थे तथा संस्था का भी काम चलाते थे। स्वावलम्बन का यह भाव उनके जीवन में अंतिम समय तक बना रहा। आगे चलकर वे ग्राहक पंचायत के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

    जगदीश जी के भाई-भतीजे बड़े कारोबारी हैं। मधेपुरा में संघ तथा संघ परिवार की अनेक संस्थाओं के कार्यालयों के लिए उन्होंने ही भूमि उपलब्ध कराई। वहां एक सरस्वती शिशु मंदिर भी चलता है। ऐसे सम्पन्न परिवार के होते हुए भी जगदीश जी का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। समाज से न्यूनतम लेकर उसे अधिकतम देने की प्रवृत्ति के वे जीवंत प्रतीक थे।

    जगदीश जी बहुत मितव्ययी स्वभाव के थे। वे प्रचारकों को कम खर्च में काम चलाने की विधियां भी बताते थे। सरल चित्त होने के कारण वे नाटकीयता एवं आडम्बर से दूर रहते थे। उनकी इस जीवनशैली से लोग बहुत प्रभावित थे। 30 वर्ष तक ग्राहक पंचायत तथा 50 से भी अधिक वर्ष तक प्रचारक के नाते गौरवपूर्व जीवन बिताने वाले ग्राहकों के हितैषी श्री जगदीश जी का 11 फरवरी, 2009 को पटना के संघ कार्यालय पर ही देहांत हुआ।

    [su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]@महावीर प्रसाद सिघंल[/su_highlight]

    (संदर्भ : पांचजन्य एवं श्री जीवेश्वर जी)