कविता: यह स्वच्छता क्रांति परिचायक हो!

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पलायन पर कविता
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प्लास्टिक पर बैन लगा, अवश्य बड़ा यह कार्य हुआ। कवि निशांत के झोले का, दसकों बाद सम्मान हुआ।।
मन दुनिया जन परेशान थे, प्लास्टिक का अंबार लगा। पालीथीन के जहरीले दंश से, जीव जग जलवायु मरा।।

सबसे गंदा विकास प्लास्टिक, पॉलिथीन तो संकट है। सुविधाओं के नाम पर, बड़ा यह जीवन का झंझट है।। झंझट ही अब नहीं रहेगा, जब उत्पादन ही नहीं होगा। काटन कागज सूती ऊनी, फिर से झोला कांध सजेगा।।

सिंगल यूज़ प्रतिबंध लगा है-ऐसा कुछ जन कहते हैं, डबल यूज्ड फिलहाल चलेगा, इसकी अभी जरूरत है। विज्ञानी भी हल ढूंढेगा, यदि जन- शासन पहल करेगा, कवि निशांत के कंधे पर तो, थैला काटन सूत सजेगा।।

उच्च शिखर से सागर तल तक, प्लास्टिक भरा पड़ा है! सड़ता- गलता और न मरता, यह  हिंसक दैत्य खड़ा है। हिम के नीचे- जल के ऊपर, सागर तल तट पुर शहरों में, प्लास्टिक कचरा जाल बिछा है, यह शिकारी बन बैठा है।।

अब मेरी भी कुछ उम्मीद जगी है,स्वच्छ धरा हो पाएगी, बिष कूड़ा जनक प्लास्टिक, पॉलिथीन खत्म हो जाएगी! सरकारों की इच्छा शक्ति से, अरु सामूहिक प्रयासों से, स्वच्छ प्रकृति संस्कृति भाएगी, गंदगी स्वत: मिट जाएगी।।

देर मिला-दुरस्त मिला! प्लास्टिक जहर कुछ उतर रहा, फैल रहा था, प्रकृति खून में! जीवों को था  निगल रहा। कागज पर ही कानून बने ना, समुचित आदर-पालन हो, निशांत की तो है इच्छा,यह स्वच्छता क्रांति परिचायक हो।।

@कवि:सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’

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