उत्तराखंड के टिहरी जनपद स्थित जौनपुर विकास खंड में सुपरिचित सकलाना घाटी के हवेली गांव में मेरा पैतृक आवास है। जहां तीर्थ की तरह यथासमय मेरे घर के कपाट खुलते और बंद होते हैं। यह वह घर- गांव -क्षेत्र और समाज है, जो हमें विशिष्ट पहचान देता है। मूल निवास की अपनी पहचान होती है और यह हमारे जीवन और अस्तित्व का असली आधार है।
सरहद का साक्षी @कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
दुर्भाग्य की बात है कि आज उत्तराखंड सरकार मूल स्थान के के बजाय स्थाई निवास को बढ़ावा दे रही है। यह केवल वोट बैंक की राजनीति के कारण है। मूल निवासियों को उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा रहा है। मूल निवास वाले लोगों को स्थाई निवास बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यह मेरा मानना है और सरकारों को सुझाव है।
उत्तराखंड राज्य स्थापना के बाद तरह-तरह के नियम और कानून सरकार बनाने जा रही है। जिनमें अधिकांश असंगत और व्यावहारिक हैं। इसी का प्रतिफल है कि समय-समय पर जनता के आगे सरकारों को झुकना भी पड़ रहा है और भले के बजाय के बजाय उनका अहित भी हो रहा है। आज भी गांव -घर- क्षेत्र में जब कोई भी सामाजिक कार्य, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक कार्य संपन्न होते हैं तो ग्रामवासी दूरदराज के क्षेत्र से अपने गांव में आते हैं और अपने मूल स्थान को किसी चीज से भी बढ़कर मानते हैं अपने लोगों के बीच उठते- बैठते हैं, रहते हैं और क्षेत्र की महत्व को समझते हैं।
मूल निवास बनाम कथित स्थाई निवास
पलायन एक मजबूरी होती है और मामूली तौर पर कोई भी व्यक्ति रोजी-रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य के कारण नगर और शहरों की ओर मुख करता है लेकिन उसकी आत्मा अपने मूल स्थान में ही मंडराती रहती है। यदि व्यक्ति अपने गांव से बाहर भी न निकले तो आज विकट समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि गांव में ही समस्त लोग बस जाएं तो कहीं मकान बनाने के लिए भी स्थान उपलब्ध नहीं होगा। बिजली, पानी, मूलभूत सुविधाएं तो मिल सकती है लेकिन भूमि भवन की विकट समस्या उत्पन्न हो सकती है।
50 वर्ष पहले स्थिति कुछ और थी। प्रत्येक 20 से 25 वर्ष में स्थिति बदलती रहती है और जनसंख्या का भार भी क्षेत्र पर बढ़ता जाता है। छात्र जीवन जब देहरादून में रहा तो देहरादून एक छोटा सा शहर था जो कि एक आज महानगर बन चुका है। उत्तराखंड राज्य बनने से पूर्व जो देहरादून की आबादी थी, उसमें 20 गुना वृद्धि हुई है। यह केवल पलायन के कारण ही नहीं हुआ बल्कि जनसंख्या वृद्धि के कारण भी हुआ है। जिस व्यक्ति का उस समय देहरादून में एक घर था, कई पुत्र और पुत्रियों के होने के कारण आज उनके अनेकों कंक्रीट के भवन बन चुके हैं/ रहे हैं। रोजगार ,शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधाओं की तलाश में भटकता हुआ मानव, अपने संघर्षों के बल पर अस्थाई (कथित स्थाई) रूप से शहरों में बसा हुआ है। लंबे समय तक वहां रहने पर भी वह गांव का नागरिक ही माना जाता है।
भूमिकुछ बातों को छोड़कर बाल्यकाल और वृद्धावस्था के लिए घर और गाँव सबसे अच्छे आशियाने मैं मानता हूं। जिस स्थान पर व्यक्ति ने जन्म लिया है प्रत्येक व्यक्ति की यही अवधारणा होती है कि उसका अंतिम समय भी उसी स्थान पर गुजरे। अपने पैतृक निवास पर आधारभूत ढांचा खड़ा करने में जीवन के अंतिम क्षणों में व्यक्ति को काफी प्रयास करना पड़ता है क्योंकि पुरानी और नई पीढ़ी की सोच में अंतर होता है और वहां समन्वय बनाना काफी कठिन हो जाता है।मूल गांव घर और क्षेत्र में प्रत्येक कार्य पैसे से नहीं, बल्कि सहयोग से किए जाते हैं; लेकिन उसके लिए आंशिक तौर पर धन का होना भी अत्यावश्यक है। यदि मैं अपने ही परिवार जनों की बात करूं तो जिस स्थान पर हम 04 परिवार रहते थे, यदि सभी भाई सपरिवार घर लौट जाएं तो कम से कम उस स्थान पर 16 परिवार हो जाएंगे। परिवारों के लिए भूमि उपलब्ध नहीं है। मकान बनाने के लिए जगह नही, रोजगार के साधन कम हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा, बिजली -पानी आदि सुविधाएं तो हैं, लेकिन वह सीमित स्तर पर हैं।
कुल मिलाकर भारत गांवों का देश है और आज भी ग्रामीण संस्कृति और शहरी सभ्यता में जमीन आसमान का अंतर है। जहां गांव में स्वच्छता, सुंदरता, सहभागिता, समन्वय और सहयोग की भावना है, वहीं दूसरी ओर शहरों में केवल सुविधाएं और असंतोष अवसर वाद, स्वार्थ और संदेह की भावना देखी जा सकती है। घर वह है जो सुख, शांति और संतोष प्राप्त प्रदान करे।