‘धरा’ ने जब सींचा सुमनों को, गगन से बौछार पड़ी,
तृप्त हो गई शुष्क वसुंधरा,वन की आग भी बूझ गईलघु कविता: धरा ने जब सींचा सुमनों को ।
निश्छल निर्मल धरा रूप लख,मां सुरकंडा जाग उठी,
देख धरा का भोलापन वह,अमृत वर्षा मूसलाधार हुई।
धरा ने जब सींचा सुमनों को ———-
जड़ धार से जब मां सुरकंडा, सुर शैल प्रस्थान करी,
मां के विह्वल अश्रुधार से, सारी धरती जल युक्त हुई।
सूखे विटप हरित हो गए, सुमानों ने भी लोचन खोले,
जीव जंतु कीट खग गण,मन खुशियां भर डोल उठे।
धरा ने जब सींचा सुमनों को ———-
@कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।