रूस- यूक्रेन युद्ध पर निजी समझ: कभी-कभी युद्ध भी जरूरत हो जाता है, बिना युद्ध के शांति नहीं होती

84
यूक्रेन-रूस युद्ध: वर्तमान विश्व परिदृश्य में भारत की भूमिका
यहाँ क्लिक कर पोस्ट सुनें

जितने दोषी ब्लादिमीर पुतिन उससे भी अधिक जेलेंस्की, अमरीका और नाटो का विस्तारवाद

कहते हैं,” बिना युद्ध के शांति नहीं होती।” कभी-कभी युद्ध होना भी जरूरत बन जाती है। व्यक्ति हो या राष्ट्र  मन के अंदर बैठी हुई है पीड़ा को सदैव सताती है। कभी-कभी छोटी सी फुंसी भी नासूर बन जाती है।

[su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

सन 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और एक महासंघ के 15 राष्ट्र बने तो उसी दिन यह विनाशकारी पटकथा लिखी गयी थी। जो राष्ट्र समूह सूत्र में बंधा हुआ महासंघ था,रूसियों के लिए कड़वा घूंट भी रहा। सबसे पहले बाल्टिक देश,लाटविया,लिथुआनिया और एस्टोनिया ने अपने को स्वतंत्र करने की ठानी। विश्व की महाशक्तियों का अहंकार,चाहे शीत युद्ध के समय रहा हो या उससे पूर्व और पश्चात, सदैव मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। शक्ति के वर्चस्व में पागल होकर कोई भी व्यक्ति  जब अंधा हो जाता है तो उसका असर संपूर्ण विश्व में पड़ता है।

सोवियत संघ के पतन के बाद जो अंतरराष्ट्रीय संबंध थे उन पर भी असर पड़ावे भी प्रभावित हुए और अमेरिका की एक छत्र दादागिरी पूरे संसार में व्याप्त हो गई । मौका मिला चीन को शक्ति बढ़ाने का। वर्षों तक भारत किंकर्तव्यविमूढ़ रहा। उसके लिए यहां ‘खाई और वहां कुआं’ वाली स्थिति थी। लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियां बदली। रूस के मन में अमेरिका और नाटो देशों के बढ़ते हुए विस्तारवाद की बुराई हमेशा खटकती रही। चाहे वह किसी भी रूप में हो। उसकी सीमाओं,नजदीक और अंदर अनेकों बार उसे सैन्य कार्यवाही करनी पड़ी चाहे चेचन्या का विद्रोह हो या क्रीमिया में सेना भेजना, जिसको मैं रूस का मामला समझता हूं।

अब बात यूक्रेन की करते हैं। यूक्रेन पूर्व में चाहे स्वतंत्र देश रहा हो लेकिन लंबे समय तक सोवियत- संघ में रहा। वहां की संस्कृति,परम्परा भी रूस के इतिहास, भूगोल और संस्कृति से मेल खाते हैं और कमोबेश उसका प्रभाव संपूर्ण देश पर है। जब राजनेताओं की महत्वाकांक्षा बढ़ जाती है। तो वे वाह्य शक्तियों के प्रभाव मे आ जाते हैं। दुश्मन तक को भी आमंत्रित करने में गुरेज नहीं करते। बैसाखियों के सहारे इस प्रकार इतराने लगते हैं कि जैसे वह सर्वशक्तिमान हो गए हो गये हों। और उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है निरपराध लोगों को, गरीब जनता को, अर्थव्यवस्था और मानवता को। रूस और यूक्रेन के बीच तनातनी काफी लंबे समय से चल रही थी और आग में घी डालने का कार्य किया अमेरिका की नाटो विस्तार नीति ने। क्या जरूरत थी यूक्रेन को नाटो में सम्मिलित करवाने के प्रयास की? कहते हैं ,”धोबी का कुत्ता- घर का ना घाट का” यह वाली कहावत प्रचलित है।

रूस ने जिस तैयारी के साथ यूक्रेन पर हमला किया,भले ही मानवीय दृष्टिकोण से निंदनीय है, लेकिन उसकी जरूरत भी थी। इस युद्ध के लिए जितने दोषी व्लादीमीर पुतिन और जेलेंस्की हैं उससे भी ज्यादा उत्तरदायी बोरिस जॉनसन या बाइडेन की धमकियां है।
जब रूस यूक्रेन में घुस गया और ताबड़तोड़ हमले करने शुरू कर दिए तो एक ही दिन में विश्व की महाशक्ति यहां किनारे हो गई। रही- खुई कसर चीन की मौका परस्ती ने किसी हदतक पूरी कर दी और उसने प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से रूस का समर्थन कर दिया।

अब जेलेंस्की गिड़गिड़ा रहे हैं जिसके वह स्वयं भी दोषी हैं।एक ही दिन में संपूर्ण विश्व पर इस युद्ध का प्रभाव पड़ गया है। अगर यह युद्ध लंबा खींचा और संसार में अस्थिरता और शांति का माहौल बना तो इसके लिए रूस कितना दोषी होगा उससे अधिक अमेरिका, जेलेंस्की और नाटो होंगे। जेलेंस्की का अमेरिका और यूरोपीय संघ प्रति अति विश्वास होना भी है।
युद्ध की स्थिति में हम आर्थिक मदद या चिकित्सकीय उपकरणों को देकर राहत पहुंचा सकते हैं लेकिन किसी की नफरत नहीं मिटा सकते।
इसलिए अमेरिका और यूरोपीय संघ को भी हठधर्मिता छोड़नी होगी। व्लादीमीर पुतिन को मनाना होगा। नाटो के हस्तक्षेप को रोकना होगा और मानवीय मूल्यों की रक्षा करने के लिए इस युद्ध को जितना जल्दी हो सके समाप्त करना होगा। हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कूटनीतिक पहल कर सकते हैं,कर रहे हैं जैसा कि यूक्रेन ने भी माना है।
रूस के साथ हमारे परंपरागत सम्बंध हैं। संबंध रहे हैं। ‘भारत-सोवियत बीस वर्षीय रक्षा मैत्री’ आज भी इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। अमेरिका के साथ संबंध अच्छे हैं, लेकिन इतने विश्वसनीय नहीं हो सकते जितने कि रूस के साथ रहे हैं। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में रहकर सरकार चलाना अलग बात है और मित्रता तथा मित्र की पहचान करना अलग बात है। इसलिए अपने इतिहास पर नजर रखनी चाहिए और उसी के अनुरूप सोच समझकर कदम उठाना चाहिए। जिससे विश्व में शांति और स्थिरता का वातावरण कायम हो सकता है।