दिनचर्या: सुबह होती है शाम होती है, जिंदगी इसी तरह तमाम होती है

    77
    पलायन पर कविता
    पलायन पर कविता
    यहाँ क्लिक कर पोस्ट सुनें

    कभी किसी शायर की उक्त पंक्तियां सुनी थी। जिनका क्रियात्मक अनुभव करता आया हूं। 730 दिन यूं ही निकल गए ! 24 मार्च 2020 को प्रशासन के द्वारा हुक्म हुआ कि बोर्ड परीक्षा के अवशेष प्रश्न पत्रों के  कार्टून बैग्स  खंड शिक्षा अधिकारी कार्यालय में जमा कर दिया जाए। तीन प्रश्न पत्रों की अवशेष परीक्षा संपन्न कराने की यथा समय सूचना दी जाएगी।

    [su_highlight background=”#870e23″ color=”#f6f6f5″]सरहद का साक्षी @कवि सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

    कोरोना महामारी के कारण अचानक यह स्थिति उत्पन्न हुई और आदेशानुसार प्रश्न पत्रों के अवशेष बंडल खंड शिक्षा अधिकारी कार्यालय में जमा कर वापस चला आया। 31 मार्च 2020 को सेवानिवृत्ति की तिथि थी। शासन के आदेशानुसार घर से ही रिलीव होना पड़ा। उसके उपरांत भले ही प्रधानाचार्य का प्रभार कार्य देने के लिए एक दिन विद्यालय में गया। प्रभार लेने वाले श्री रावत जी और मुख्य सहायका को कालेज बुलाकर कार्यभार संपन्न किया।
    विद्यालय में जहां बच्चों की किलकारियां गूंजती थी, बच्चों का शोर, घंटी/घोष की की आवाज, साथी अध्यापकों की बातचीत, अभिभावकों की चहलकदमी, राजमार्ग पर दौड़ती हुई बसों की लंबी लाइन और अवरोध उत्पन्न करती हुई उनकी हार्न ध्वनि, समीपस्थ बाजार में बजते हुई  टेप रिकॉर्डर की आवाज और सुदूर घाटी से ध्यान भंग करने वाली आने वाली अनेकों ध्वनियां, सन्नाटे में परिवर्तित हो गई।
    चलो, भाग्य में ऐसे ही विदाई लिखी हुई थी!  पूरे देश में लॉकडाउन लगा। बाहर निकलना दूभर हो गया। कहीं पुलिस- प्रशासन का डर। कहीं महामारी का भय। कहीं एकाकीपन का एहसास ने तन -मन को घेर दिया।
    शहर के कोने पर रहने के कारण, जंगल में शैर- सपाटा करता रहा और उसके लिए साथ मिल गया एक सम्मानित पूर्व सैनिक का। चोरी-छिपे दूरस्थ जंगल तक भ्रमण होता रहा। कुछ समय यूं ही कट गया। फिर सोचा कि क्या किया जाए ? दुकानदारों पुराने कैलेंडर के बंडल के लिए पूछा। एक दुकानदार के यहां मिले। उनके पीछे से कोरी तरफ कविता पोस्टर लिखे। कोरोना वायरस  नारे, स्वच्छता अभियान, बेटी बचाओ, जल संरक्षण, सड़क सुरक्षा ,स्वास्थ्य और जीवन आदि अनेक विषयों पर स्वरचित कविताएं लिखी और यथा समय जब -जब लाक डाउन टूटे,  सार्वजनिक स्थलों, बैंक, पोस्ट ऑफिस,एटीएम, यहां तक कि जिला मुख्यालयों में भी उनको टांगा। शासन -प्रशासन की नजर भी उन पर गई। लोगों को प्रेरणा मिली और मुझे सम्मान भी प्राप्त हुआ।
    बस! यूं ही जिंदगी के दिन लिखने पढ़ने में गुजरते रहे। न किसी से मेल मिलाप, न किसी धार्मिक सामाजिक राजनीतिक आयोजन में शिरकत। पता ही नहीं चला कि कब तीर की तरह समय निकल गया। धीरे-धीरे कोरना महामारी का प्रभाव कम हुआ। गणमान्य व्यक्तियों का बुलावा आया और  सेवानिवृत्ति के एक वर्ष बाद उन्होंने मेरी प्रतीकात्मक विदाई की। इसके बाद विद्यालय के साथियों ने भी आमंत्रित किया और उन्होंने भी एक वर्ष बाद प्रतीकात्मक विदाई समारोह आयोजित किया। इसके लिए मैं क्षेत्रीय जनता, जनप्रतिनिधियों और अपने साथियों का सदा शुक्रगुजार हूं।
    नगर पालिका परिषद चंबा ने “स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर” का दायित्व दिया। फिर उसे अभियान में लग गया।  स्वच्छता के नारे, कविताएं, जन जागरूकता अभियान, क्रियात्मक कार्यों के द्वारा अलख जगाना अपना दायित्व समझा जो गतिमान है।
    कोरोना की लहरें ज्वार -भाटे की तरह घटती- बढ़ती रही और मैं भी इसी अनुक्रम में अपने मिशन पर लगा रहा। पत्र-पत्रिकाओं के लिए अनेकों कविताएं और आलेख लिखता रहा। प्रतिदिन एक कविता या आलेख सोशल मीडिया के द्वारा बच्चों, समाज और पाठकों के सम्मुख लाता रहा हूं।
    हां! सेवानिवृत्ति के बाद प्रतीक चिन्ह के रूप में समाज को देने के लिए अपनी तीसरी पुस्तक का प्रकाशन करवाया। लोगों ने “सुरकुट निवासिनी- जय मां सुरकंडा”  काव्य संग्रह को स्वीकार किया और 1000 प्रतियां कब वितरित हो गई, पता ही नहीं लगा। बस, अविरल इसी प्रकार के कार्यों में लगा हूं।
    ” सुबह होती है शाम होती है, जिंदगी इसी तरह तमाम होती है।”
    मस्तिष्क में अनेकों लहरें उत्पन्न होती हैं और उनके समाधान के लिए मेरे पास जो सबसे बड़ा निदान है, वह है- रचनात्मक कार्य।
    यदा-कदा कौशल विकास केंद्र, नेहरू युवा केंद्र, विद्या भारती आदि के लोग जब मुझे प्रशिक्षण देने, आयोजन में शिरकत करने के लिए आमंत्रित करते हैं तो पुरातन याद आ जाता है और सेवा काल की स्मृतियां तरोताजा हो जाती हैं। एक शिक्षक का भाव मेरे मन में पुनर्जीवित हो जाता है और फिर मिलता है, एक बहुत बड़ा शुकून, चैन की नींद, खुशी और कैवल्य प्रेम की भावना मन में उत्पन्न होती है।
    जीवन अलभ्य है- जीवन दुर्भाग्य नहीं है। बस !जीवन जीने का तरीका होता है। हम किस रूप से उस तरीके का सदुपयोग करते हैं?यह महत्वपूर्ण है।
    तीन दशक से ज्यादा शिक्षक का कार्य किया है। उससे पूर्व कृषक का कार्य भी किया। समाज सेवा में भी नियमित कार्य करता हूं और रचना धर्मिता तो मेरे जीवन का अंग है। ज्यादा बोलता हूं- लेकिन झूठ से नफरत करता हूं। इसलिए अनेकों बार अलग-थलग भी पड़ जाता हूं। जो वादा करता हूं, उसे निभाता आया हूं। भले ही इतने ही आक्षेप क्यों न लगे! इनसे मैं भयभीत नहीं होता। इसे भी मर्यादा का प्रश्न समझता हूं।
    निस्वार्थ भाव से किया गया कोई भी कर्म जितनी खुशी देता है, स्वार्थ से प्राप्त असीम दौलत उसके आगे कूड़े- करकट के ढेर के समान हैं। इसलिए इन बातों को भी क्रियात्मक रूप से समाज के सम्मुख लाता हूं।  इस प्रकार से दिनचर्या आगे बढ़ती जा रही है। यदा-कदा अपने घर, छान ,खेतों में चला जाता हूं। थोड़ा- बहुत मेहनत कर सब्जी आदि भी उत्पन्न कर देता हूं। अपने समाज से मिल जाता हूं। घर- गांव के लोगों के दुख- सुख, जीवन- मरण, शादी-ब्याह, सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों में शिरकत करता हूं। इसलिए हर दिन गुलजार है।
    सेवानिवृत्त होने के बाद 730 दिन आज तक बीत गये। पता भी नहीं चला। ईश्वर से प्रार्थना है कि इसी तरह जिंदगी सरपट दौड़ती रहे। स्वस्थ समाज, खुशहाल जीवन, शांति और सुव्यवस्था, व्याप्त रहे। इसी में हमारे मानवीय मूल्य निहित हैं।