रिंगाल यानी पहाड़ी बांस और रिंगालगढ़

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    रिंगाल यानी पहाड़ी बांस और रिंगालगढ़
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    रिंगाल यानी पहाड़ी बांस। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में रिंगाल का बड़ा महत्व रहा है। रिंगाल हमारी संस्कृति, आर्थिकी, शिक्षा और प्रकृति की समन्वयित पहचान रही है।

    [su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

    उष्णकटिबंधीय भौगोलिक क्षेत्रों में बांस के बेड़े यत्र- तत्र पाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो बांस के जंगल दृष्टिगोचर होते हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र में जहां अधिक वर्षा और तापमान ऊंचा होता है, वहां बांस के घने जंगल पाए जाते हैं और अनेकों प्रकार से स्थानीय लोग इनका उपयोग करते हैं। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में बांस की प्रजाति रिंगाल के रूप में जानी जाती है। बच्चे के पैदा होने के बाद जब वह विद्यालय जाता है तो पहाड़ी क्षेत्रों में सर्वप्रथम रिंगाल की कलम और स्याही की दवात से उसका नाता जुड़ता है। रिंगाल की कलम बनाकर उसकी चोंच को कत्तदार बनाते थे और सुंदर कलात्मक अक्षर  सुलेख की कापी पर शोभा बढ़ाते थे। जो  एक होल्डर का काम करती थी। इसीलिए कलम और दवात आज के अमर है। पर्वतीय क्षेत्रों के लोग रिंगाल का उपयोग कुटीर उद्योग के रूप में करते थे जो कि आर्थिकी का एक बहुत बड़ा स्रोत था। रिंगाल से  टोकरिया, झाले, घिल्डे, सोल्टे, कोलने, डाली, सकेड़े, मुरेटे, सेक्वा आदि  अनेक प्रकार के गृह उपयोगी सामान बनते थे।

    कार्य विभाजन के अंतर्गत इस कार्य को पहले रिंगाल्डे  लोग करते थे। भी डडवारक्या होते थे और अपने कृषक ग्राहकों को साल या 6 महीने में स्वनिर्मित उपयोगी,कलात्मक सामान प्रदान करते थे। बाजारों के विस्तार होने के साथ-साथ रिंगाल का महत्व बढ़ता गया और लोगों ने इनके बनाए हुए सामान जैसे टोकरियाँ, सूप आदि बाजारों में भेजने शुरू किए और मेलों के अवसर पर स्थानीय महिलाएं अवश्य ही इन उपयोगी सामानों को क्रय अवश्य करती थी।

    समय की गति के साथ-साथ रोजगार भी बदलें। अब रिंगाल्डे  दिखाई देने मुश्किल हो गए हैं। समाज में समानता का भाव आ जाने के कारण कुछ स्थानीय कृषक अभी भी उपकरणों को स्वनिर्मित करते हैं और काम चलाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों के प्रत्येक घर में इस प्रकार रिंगाल के बनी हुई असंख्य बस्तुएं, सामान आज से मिल जाएंगे। भले ही उनका इस्तेमाल न होता हो। अब वह संग्रहालय की वस्तु बन गए हैं। फिर भी कमोबेश प्रत्येक घर में इस प्रकार के सामान की महत्ता समझी जाती है।

    पुराने समय में बुजुर्ग बताते हैं कि खेत जोतते समय कभी रिंगाल की लाठी से बैलों  को नहीं हांका जाना चाहिए और न कभी मारना चाहिए। इस से पाप लगता है। कुछ भी हो लेकिन रिंगाल लाठी से पशुओं को दर्द अधिक महसूस होता होगा। हां घोड़ा -खच्चर चालकों के पास लंबे समय तक रिंगाल के बने हुए बेट या लाठियां मौजूद रहती थी।  जिसका स्थान कालांतर में बांस के बेत ने ले लिया।

    स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांव के आसपास  रिंगाल के बेड़ों के अंदर सरकारी दमन चक्र से बचने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उनके बीच में आशियाना बना लेते थे। मेरे चाचा जी स्व.श्री सत्यानंद सकलानी, सकलाना (टिहरी गढ़वाल) प्रजा मंडल के महामंत्री थे। आजादी के समय उन्होंने अभूतपूर्व कार्य किया। अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के बाद महीनों तक उनका डेरा रिंगाल के बेड़ों के अंदर बना रहा। जिसके कारण हुए पकड़े नहीं गये और उन्हें जेल नहीं हो सकी।

    परिणाम यह हुआ कि इतना बड़ा स्वाधीनता संग्राम सेनानी, आजादी के बाद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन, सुविधाओं और सम्मान से वंचित रह गये। केवल स्थानीय स्तर पर ही अपनी पहचान बना पाए जबकि उनके समकक्ष कार्य करने वाले क्रांतिकारी स्वाधीनता संग्राम सेनानी माने गए और उसका उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया गया। इसीलिए कभी-कभी रिंगाल के बेड़े के प्रति मेरी कोफ्त भी बढ़ जाती थी और अपनी भड़ास निकालने के लिए मैं रिंगाल को काटकर, इन्हें चीरकर, झाले,ठोपरे, आदि के रूप में इस्तेमाल करता रहा।

    हमारे घर के समय यह स्कूल के बच्चों और उनके अभिभावकों का रिंगाल के डंठल लेने के लिए तांता लगा रहता था क्योंकि इर्द गिर्द के अधिकांश गांवों के समीप मात्र मेरे ही घर के आस-पास रिंगाल के दो बड़े बेड़े थे।
    आज जंगलात के लोग वृक्षारोपण के नाम पर कई जगहों पर रिंगाल का रोपण कर रहे हैं। जंगलात के इस रोपण के कारण से टिहरी गढ़वाल के सुप्रसिद्ध जंगलात के रेंज ऑफिस जांदरियाखाल के समीप एक पूरा गांव “रिंगाल गढ़” के नाम से जाना जाता है। जहां की समशीतोष्ण जलवायु होने के कारण रिंगाल का  घना जंगल रहा होगा।

    जांदरियाखाल में जंगलात का  रेंज ऑफिस का बंगला भूतहा बन गया है और सतलाना रेंज के वन क्षेत्राधिकारी का कार्यालय दशकों से चंबा में शिफ्ट हो गया है। सरकारी कार्यों को निष्पादित करने के लिए तो यह सुविधाजनक स्थान था ही साथ ही जंगलों की रक्षा करने, उनका निरीक्षण करने तथा स्थानीय परिवेश में रहकर निवासियों से संपर्क बनाए रखने के लिए यह स्थान उपयुक्त था।
    अपेक्षा की जाती है कि उत्तराखंड का वन विभाग रिंगालगढ़ के निकट जांदरियाखाल का रेंज ऑफिस  सवारने का कार्य करेगा। सड़क मार्ग से निकट यह स्थान जंगल के बीच में है। राजधानी देहरादून से  सड़क मार्ग से मात्र 40 किलोमीटर दूर भी नहीं है।