लोक पर्व: सकलाना के गांवों में जोश खरोश से मनाई गई मंगसीर महीने की रिख बग्वाल

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लोक पर्व: सकलाना के गांवों में जोश खरोश से मनाई गई मंगसीर महीने की रिख बग्वाल
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मंगसीर के महीने की रिख बग्वाल (एक लोक त्यौहार)

भारत पर्व और त्यौहारों का देश है। यूं तो संपूर्ण भारत वर्ष में अनेकों पर्व, त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हैंलेकिन स्थानीय त्यौहारों का भी सदैव महत्व रहा है। वर्ष के अधिकांश दिनों में अनेकों राष्ट्रीय पर्व, धार्मिक त्यौहार और लोक पर्व मनाये जाने का आदिकाल से रिवाज़ चला आ रहा है। इसी क्रम में आज टिहरी,उत्तरकाशी जिलों के कई भागों में मंगसीर माह की दीपावली (रिख बग्वाल) मनाए जाने का प्रावधान भी है।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।[/su_highlight]

टिहरी जनपद के जौनपुर प्रखंड, भिलंगना क्षेत्र के बूढ़ा केदार और रवाईं के अनेकों क्षेत्रों में इस रिख-बग्वाल( दीपावली) को मनाया जाता है। यद्यपि यह दीपावली के ठीक एक माह बाद आने वाला त्यौहार  है।जिसका महत्व दिन- प्रतिदिन कम होता जा रहा है लेकिन कुछ स्थानों में आज भी इस परंपरा को जीवित रखा गया है ।

बूढ़ा केदार क्षेत्र में कैलापीर देवता की जात के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है, जबकि जौनपुर प्रखंड में  धार्मिक मान्यताओं के आधार पर इस त्यौहार को जीवित रखा गया है। पट्टी सकलाना (टिहरी गढ़वाल) के तीन गांवों में आज भी रिख बग्वाल का यह त्यौहार जोश- खरोश के साथ मनाया जाता है। नाते- रिश्तेदार, बंधु -बांधव ,गांव में पहुंचते हैं। छोटी बग्वाल (दीपावली) को मंडाण और दूसरी दीपावली को मेरे ग्राम हवेली (सकलाना)जौनपुर टिहरी गढ़वाल में भव्य ड्रामा का आयोजन किया जाता है।

विगत वर्ष  ग्राम हवेली “बाल- मंच” के द्वारा कोविड-19 के कारण युवाओं में फैली बेरोजगारी पर आधारित नाटिका का मंचन किया गया। साथ ही स्वस्थ मनोरंजन और सीख के लिए अनेकों लोक- संस्कृति पर आधारित कार्यक्रमों को भी आयोजित किया गया। सांस्कृतिक  कार्य-क्रम  देखने के लिए काफी संख्या में भीड़ उमड़ती है।आस-पास के गांव उनियाल गांव, पुजारगांव तथा क्षेत्र से लोग ड्रामा देखने आते हैं। नाते- रिश्तेदार,विवाहित गाँव की बेटियां भी सम्मिलित होती हैं।  रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेते हैं।

इस बग्वाल की खास विशेषता यह है कि नौकरी- पेशा वाले लोग अपनी छुट्टियों को बचा कर रखते हैं और दूरदराज के शहरों से त्यौहार मनाने गांव में आते हैं। विगत वर्ष बग्वाल के अवसर पर ड्रामा में स्थानीय निवासियों के अलावा उनियाल गांव, पुजार गांव, सत्यों आदि से भी लोग कार्यक्रम को देखने के लिए हवेली पहुंचे। 06 घंटे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम गतिमान रहे।

कार्यक्रम में कलाकारों का भरपूर उत्साह वर्धन किया गया तथा सकलाना जन- सरोकार समिति के द्वारा कुछ समय पूर्व सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता आयोजित की गई थी उसमें प्रतिभागियों को भी गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में  पुरस्कृत किया गया। अनेक दर्शकों ने इस अवसर पर हवेली ड्रामा क्लब को यथाशक्ति दान ही दिया। लगभग 24000 रुपए दर्शकों के द्वारा दान स्वरूप दिए गए। इस धनराशि का उपयोग सांस्कृतिक गतिविधियों को आयोजित करने के लिए, भौतिक संसाधन उपलब्ध करने के लिए किया जाता है। जिसका की अभिलेखीकरण भी किया जाता है। ड्रामा समिति हवेली पूरा हिसाब किताब मेंटेन करती है।

कार्यक्रम का संचालन कई वर्षों से छोटे भाई कमलेश सकलानी के द्वारा किया गया। वह बरसों से बच्चों को रिहर्सल भी करवाते आए हैं। इस अवसर पर ग्रामवासियों बच्चों के अलावा अनेक कलाकार और गणमान्य लोग प्रतिभाग  करते हैं और त्यौहारों का महत्व, स्वस्थ मनोरंजन और परंपरा पर अनेक बातें अपने संदेश में बताते हैं। इस लोक पर्व का अपना एक ऐतिहासिक महत्व भी है। कहते हैं कि भगवान राम, रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद जब अयोध्या वापस लौटे तो राज बग्वाल या राज दीपावली मनाई गई। राजबग्वाल के 11 दिन बाद ईगाश बग्वाल मनाई जाती है जिसका भी उत्तराखंड मे अपना महत्व है। बताते हैं कि तिब्बत के युद्ध में युद्ध रत रहने के कारण तत्कालीन सेनापति माधो सिंह भंडारी दीपावली के ग्यारह दिन बाद वापस लौटे थे। उनके स्वागत में दीपावली मनाई गई।

इसी प्रकार से रिख बग्वाल के बारे में बताते हैं कि श्रीलंका मे रावण राज अंत करने के बाद भगवान राम ने जामवंत को अपने प्रतिनिधि के रूप में श्रीलंका की व्यवस्था संभालने के लिए रखा था। पौराणिक ग्रंथों में जामवंत को हर रीख, रीछ या भालू आदि के रुप में जाना जाता है। 01 माह बाद जब जामवंत भारत लौटे तो उनके स्वागत भी उसी हर्षोल्लास के साथ दीप पर्व के रुप में मनाया गया।

पौराणिक महत्त्व जो भी रहा हो लेकिन इतना जरूरी है कि पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि आधारित जीविकोपार्जन के आदिकाल से  साधन सुलभ रहे हैं। कार्तिक के महीने होने वाली राज दीपावली के समय अधिकांश लोगों का आपने मौसमी डेरों (छानियों) में निवास रहता था तथा खेती- बाड़ी का काम भी चरम पर होता था। पशुओं के लिए घास- पात इकट्ठा करना, फसल कटना, गेहूं की बुवाई आदि अनेक कार्यों को होने के कारण लोगों को मंगसीर मे गाँव में आ जाने के बाद, फुर्सत से त्यौहार मनाने का अवसर भी मिलता था। मंगसीर का महीना फुर्सत का माह होता है इसलिए दीवाली के ठीक एक महीने बाद खुशी की इस दीपावली को मनाते आ रहे हैं।

कालांतर में जब नौकरी पेशेवर बच्चों  के आग्रह पर बहुसंख्यक क्षेत्र में राज दीपावली को ही मनाने का निश्चय किया गया क्योंकि नौकरी- पेशा वाले लोगों को उसी समय छुट्टियां उपलब्ध होती हैं फिर भी परंपरा के रूप में यह त्यौहार कुछ क्षेत्रों मे आज भी मनाया जाता है और परंपरा जती है। इस पुरातन संस्कृति को बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश भी की जा रही है और अब एक नहीं बल्कि तीन-तीन दिवालियां लोग मना रहे हैं।

कोविड-19 के कारण दीपावली का पर्व की प्रभावित हुआ। लोगों में सामाजिक दूरी उत्पन्न हुई। जिस कारण केवल प्रतीकात्मक रूप में यह त्यौहार मनाया गया।  कोरोना जैसी महामारी (ओमीक्रान) फिर अपने पैर पसारने लग गई है। अपेक्षा की जाती है कि इस त्यौहार को मनाने में भी आंशिक दूरी बनाए रखें। मास्क का प्रयोग करें,बार बार हाथ धुलें, सेनेटाइजर का इस्तेमाल करें तथा स्वच्छता का ध्यान रखा जाए।अपेक्षा है। इस मौके पर  सुभाष सकलानी, मीनाक्षी कोठरी, अरविंद सकलानी, भारती सकलानी, जय प्रकाश सकलानी, गणेश सकलानी, अरविंद सकलानी, द्वारिका सकलानी आदि उपस्थित थे।