धर्म-अधर्म: दीर्घ जीवन नहीं पवित्र जीवन का ही मूल्य है

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धर्म-अधर्म: दीर्घ जीवन नहीं पवित्र जीवन का ही मूल्य है
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यत् सुखं सेवमानोऽपि धर्मार्थाभ्यां न हीयते। कामं तदुपसेवेत न मूढव्रतमाचरेत्।।

किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन में यह छूट है कि वह न्यायपूर्वक और धर्म के मार्ग पर चलकर इच्छानुसार सुखों का भरपूर उपभोग करें, लेकिन उनमें इतना आसक़्त न हो जाए कि अधर्म का मार्ग ही पकड़ ले।

इसलिये जीवन में सदैव काम, क्रोध लोभ, मद, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, आलस्य, छल, हठ इन दस अवगुणों से सावधान रहें, क्योंकि आध्यात्मिक जगत के साथ साथ प्रत्येक के जीवन में इन्ही सब अवगुणों के कारण ही कई अवरोध जीवन में आ जाते है जिससे मानव धर्म के अनुसार आचरण नही कर पाता।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @*ई०/पं०सुन्दर लाल उनियाल[/su_highlight]

यहाँ यह विचार करने एवं समझने योग्य है कि कितना लम्बा जीवन जीये, यह महत्वपूर्ण नहीं है अपितु मानव ने कितना जीवन जिया के बजाय उस मानव ने कैसा जीवन जिया यह अधिक महत्वपूर्ण है।

अत: दुर्लभता से प्राप्त झ्स मानव जीवन को पवित्र बनाने के लिये अपने जीवन को सदैव सदाचारी और सुसंस्कृत बनाने का ही प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि दीर्घ जीवन का नहीं पवित्र जीवन का ही मूल्य है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में स्पष्ट रुप से मानव को सचेत किया तथा अधर्म से प्राप्त ऐश्वर्य की भर्त्सना के साथ साथ यह भी लिखा कि बिना धर्म की संपत्ति और प्रभुता यदि आपके पास हो तो वह भी आपके पास से दुर चली जाती है और उसका पाना न पाने के बराबर ही है।

अत: अपने इस अमूल्य जीवन में धर्म के अनुसार ही आचरण करते हुये सत्य की राह पर ही चलने का संकल्प लें इसी से आपका मंगल भी होगा और कल्याण भी होगा।

*नैतिक शिक्षा व आध्यात्मिक प्रेरक, दिल्ली/इन्दिरापुरम, गा०बाद/देहरादून