सिद्धांतहीन राजनीति: राजनीति जब सिद्धांतहीन हो तो बुरा होता है उसका हस्र

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आज देश में जिस प्रकार की सिद्धांतहीन राजनीति चल रही है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। उत्तराखंड भी सिद्धांतहीन राजनीति का शिकार बन चुका है। विचारधारा का अकाल पड़ जाने के कारण जगतगुरु कहलाने वाला भारत अब केवल इतिहास का पन्ना समझो।
हमारे धर्म ग्रंथों, पुराणों और महाकाव्य में वर्णित है कि “बध भला -बदनाम बुरा”। रामचरितमानस में उद्धृत है “रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई”।

महाराजा हरिश्चंद्र ने अपने सिद्धांतों के लिए न जाने कितने कष्ट भोगे। भगवान राम ने वनवास झेला। भगवान पुत्र ने सत्य, अहिंसा और प्रेम का सिद्धांत निरूपित किया। हमारे पीर पैगंबरों ने “ईमान और जुबान” का नारा दिया। लेकिन आज वही भारत जिसके पास एक आध्यात्मिक शक्ति थी, आत्मबल था और ज्ञान का आलोक था, वह राजनीति की काली छाया से ग्रस्त होता जा रहा है। आने वाला समय इस प्रकार की ओछी राजनीति के कारण अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा या मेरा मानना है।

प्रजातांत्रिक देश भारत में राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए सदा ही “तलवार से अधिक शक्तिशाली कलम रही है।” वर्तमान में “बुलेट से ज्यादा शक्तिशाली बैलेट है।” अफसोस इस बात का है कि गिरगिट जैसे रंग बदलते हुए नेताओं को कैसे जनता पचा देती है।
पुराने जमाने के हर राज्यतंत्रवादी विचारधारा के शासक विश्वास नहीं तोड़ते थे। पाखंड से दूर रहते थे। उनका प्रत्येक शब्द राजाग्या होता था। जिसका जनता की आदर करती थी। वे गिरगिट जैसे रंग नहीं बदलते थे। आत्म स्वाभिमान के लिए सर्वस्व निछावर कर देते थे। इसीलिए आज से हमारी धर्म- संस्कृति, महा पुराणों और ऐतिहासिक ग्रंथों में उन्हीं लोगों को याद किया जाता है। चाहे महाराजा हरिश्चंद्र जी हो, भगवान राम हो, गौतम बुद्ध हो या गुरु नानक देव जी।

महाराणा प्रताप का बलिदान हमें याद दिलाता है। घास की रोटियां खा ली लेकिन अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। मतीराम जी के शरीर को आरा से चीर दिया गया था लेकिन उन्होंने अपने धर्म और विचारों से समझौता नहीं किया। गुरु गोविंद सिंह, गुरु तेग बहादुर, बंदा बैरागी जैसे न जाने कितने महान पुरुष है जिन्होंने कि अपने विचारों के लिए प्राणों की आहुति दी है।
इतना ही नहीं, अपने ही टिहरी गढ़वाल के अमर शहीद श्री देव सुमन, अमर शहीद नागेंद्र सकलानी, पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ही क्यों न रहे हों।

विधानसभा चुनाव की हल चल है। दो दिन पहले तक भगवान का अपमान करने वाले ढोंगी आज राम नाम की माला जपने लगे हैं। गेरुवा वस्त्र धारण करने से शरीर का मैल तो छुप सकता है लेकिन आत्मा में परिवर्तन कभी नहीं हो सकता है। सिर का मुंडन करने से पापों का मुंडन नहीं हो जाता और राजनीतिक पाला बदलने के कारण वैचारिकता नहीं बदलती है। दल बदल जाता है लेकिन सोच नहीं बदलती है और जब इस प्रकार के अवसरवादी तत्व स्वस्थ राजनीति में प्रवेश करते हैं तो पूरी राजनीति दूषित होती जाती है और पूरा वातावरण ही काला हो जाता है।

छात्र जीवन से ही थोड़ा बहुत राजनीति का पाठ सीखा है। विश्वविद्यालय में छात्र के रूप में जब रहा तो छात्र राजनीति में भी अस्तित्व बनाए रखा लेकिन उस समय की राजनीती घटिया और अवसरवादी नहीं होती थी। सिद्धांत वादी राजनीति होती थी। भले ही कुछ छोटे नेता गिरगिट जैसा रंग भी बदलते थे और उनके आकाओं के साथ ही उनके चेहरे भी अवसरवादिता का भरपूर लाभ उठाते थे।
जब मैं डीएवी कॉलेज देहरादून में परास्नातक कक्षाओं का छात्र था तो आदरणीय आनंद शर्मा जी अखिल भारतीय छात्र संघ के अध्यक्ष थे। उस नाते अपने भी अध्यक्ष हुए। श्री विवेकानंद खंडूरी, विनोद बड़थ्वाल, प्रदीप चौधरी, संजय शर्मा, सुरेश सारस्वत और उससे भी पहले हीरा सिंह बिष्ट आदि ने डीएवी कालेज से राजनीति की और उसका लाभ उन्हें भी मिला। दल- बदलू लोगों के इतिहास में आदरणीय स्व. एच एन बहुगुणा का नाम सभी जानते हैं। यदि बहुगुणा जी समय-समय पर इस प्रकार से दल ना बदलते तो निश्चित रूप से वह भारत के प्रधानमंत्री होते। एक दो बार गलती हो जाती है लेकिन गलतियों को दोहराया नहीं जाता है। “कांग्रेस फार डेमोक्रेसी” के समय तो वह प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे थे लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के कारण वह राष्ट्रीय राजनीति के उच्चस्त पद पर नहीं पहुंच पाये।

अब चुनाव में कथित नेता अपनी वर्षों पुरानी राजनीति को तिलांजलि देते हुए अवसर बाद की गोद में बैठते जा रहे हैं। जो लोग संघ के बारे में एबीसी नहीं जानते हैं वह आज संघी- भाजपाई बन गए और जो संघ की विचारधारा से प्रभावित रहे वह आज अवसरवादी का की होड़ में गांधीष्ट,समाजवादी बन किसी और की गोद में बैठ गए।

उत्तराखंड क्रांति दल जैसे क्षेत्रीय दल का असर उसी दिन बेअसर हो गया था, जब उत्तराखंड के गांधी स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी जी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। वह केवल ब्रह्मदत्त से ही नहीं हारे बल्कि अपनी बनाई हुई छवि से भी वंचित हुए। यही हश्र दिवाकर भट्ट के समय हुआ। उत्तराखंड क्रांति दल का फील्ड मार्शल भाजपा की गोद में बैठ गया और अपने सिद्धांतों को तिलांजलि दे दिया। अन्य राजनेताओं से तो मैं बात ही नहीं करता क्योंकि वह विचारधाराओं में और सिद्धांतों में टिकते ही नहीं है। यदि अपने संगठन की विचारधारा के लोगों से मेल नहीं बैठता तो कुछ समय लोग शांत बैठ जाते हैं। कालांतर में उन्ही लोगों की इज्जत होती है और पुनः राजनीतिक पार्टियां या विचारधारा के लोग उन को पुनर्स्थापित करने की पुरजोर कोशिश करते हैं। लेकिन सिद्धांत विहीन, विचार से हीन कथित जन सेवकों को जनता भली प्रकार से पहचान गई है और बैलेट से इसका जवाब देगी। यदि किसी पार्टी से टिकट नहीं मिलता है तो मही का लाल तो वही है जो अपने दम पर चुनाव लड़े। पाला पलटने के बजाए निर्दलीय चुनाव लड़े और चुनाव जीते। उसके बाद भले ही वह अंकों के खेल में सरकार बनाने के लिए प्रजातांत्रिक ढंग से सरकार में शामिल हो जाएं और अपने क्षेत्र -प्रदेश और देश का विकास करें। इसका एक उदाहरण भी है।

2012 के चुनाव में जीते हुए निर्दलीय प्रत्याशी दिनेश धनै (पूर्व कैबिनेट मंत्री उत्तराखंड सरकार)ने किसी पार्टी से समझौता करने के बजाए अपनी पार्टी बनाई है। उन्होंने अपना स्वाभिमान को बरकरार रखा। मेरी व्यक्तिगत राय है कि श्री दिनेश धनै क्षेत्र से जीतकर भविष्य में अपनी विचारधारा के अनुरूप सत्ताधारी दल को समर्थन देंगे, तो कोई बुराई नहीं है। क्योंकि क्षेत्रीय विकास जीवन की प्राथमिकताओं में से एक है।

कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
(यह लेखक के निजी विचार हैं)