कविता: हिंसा-हिंसक मानव से डरा रहा

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घूर कर नहीं देखते हैं, भाई!

तुम घर-आंगन की शोभा हो।
वर्षों से तुमसे नाता- रिश्ता है,
क्यों फिर घूर कर  देखते हो!

यह तुम्हारा भ्रम है प्रिय भाई,
क्यों मै तुम्हें घूर  कर  देखूंगा !
मै तुम्हारे प्यार में पागल पंछी,
देख दूर से  सलाम कर लूंगा।

मै कृतघ्न नहीं हो सकता भाई!
नित कृतज्ञ प्रकृति का बना रहा।
बस, जीवन के डर के कारण ही,
हिंसा हिंसक मानव से डरा रहा।

मै कवि हूं नव -रस भरने वाला,
जग सुंदरता-सौंदर्य का दीवाना।
अभिभूत हूं जीव सृष्टि सौंदर्य का,
धरती माता की छटा सुंदरता का।

@कवि:सोमवारी लाल सकलानी’ निशांत’

     (कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।