काव्य कृति समीक्षा: मालिनी का आंचल (डॉ. डी.एन. भटकोटी) समीक्षक: डॉ. अम्बरीष चन्द्र चमोली

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काव्य कृति समीक्षा: मालिनी का आंचल (डॉ. डी.एन. भटकोटी) समीक्षक: डॉ. अम्बरीष चन्द्र चमोली

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शकुंतला और दुष्यंत की प्रणय कथा पर आधारित है डॉ. डी.एन. भटकोटी की अभिनव काव्य कृति “मालिनी का आंचल”

मालिनी का आंचल शकुंतला और दुष्यंत की प्रणय कथा पर आधारित डॉ. डी.एन. भटकोटी की अभिनव काव्य कृति है। इस काव्यकृति में तत्कालीन परिवेश, राजव्यवस्था, संस्कृति और परंपराओं के समावेशन के साथ ही आधुनिक संदर्भों, जीवन मूल्यों और मानव मन में उभरने वाले शाश्वत भाव-विचारों यथा प्रेम, आसक्ति, प्रकृति, माया, ब्रह्म और मोक्ष जैसे विषयों पर दार्शनिक, तार्किक एवं तात्विक चिंतन किया गया है।
कविता को विद्वानों ने मानसिक भावों, प्रभावी विचारों और तीव्र अनुभूतियों का सहज उद्रेक कहा है *मालिनी का आंचल* के कवि डॉ. भटकोटी लोक जीवन की गहरी समझ रखने वाले एवं चिंतनशील गंभीर अध्येता हैं। वे डी.ए.वी. कालेज से सेवानिवृत्त प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) हैं। उनकी यह कालजई कविता मात्र नर नारी के संबंधों एवं सौंदर्य वर्णन तक ही सीमित नहीं है अपितु वह इन संबंधों के माध्यम से चेतना के सूक्ष्म तल और प्रेम के व्यापक फलक को स्पर्श करती है। दुष्यंत और शकुंतला के आख्यान पर आधारित अभिज्ञान शाकुंतलम् महाकवि कालिदास द्वारा संस्कृत भाषा में रचित अप्रतिम कृति है।

प्राचीनता और नवीनता का समावेश करती हुई हिंदी में एक अलग प्रकार की कृति है “मालिनी का आंचल”

प्राचीनता और नवीनता का समावेश करती हुई *मालिनी का आंचल* हिंदी में एक अलग प्रकार की कृति है जिसमें इस कथा के मूल आधार प्रेम और सौंदर्य के साथ ही विभिन्न दार्शनिक एवं आधुनिक संदर्भों को समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार इस कृति में भाव प्रधानता से अधिक चिंतन प्रधानता है। ऋषि क़ण्व एवं दुष्यंत शकुंतला की लोक प्रचलित कथाओं को कवि ने अपने बाल्यकाल से ही बड़े -बूढ़ों से सुना। मालिनी की इसी सुरम्य घाटी के सौड़ गांव में कवि का जन्म हुआ। पर्वत पुत्री शकुंतला इसी अंचल की ध्याण ( बेटी) थी। यहीं के ऋषि कुल के अभयारण्य में हिंसर की गूंदी, मधुर अम्ल बेरियों तिमल एवं मेलू आदि जंगली कंदमूल फलों का आस्वादन करती हुई,गुरुकुल के पवित्र और आध्यात्मिक वातावरण में शकुंतला का पालन पोषण हुआ था। शकुंतला के इसी मातृ प्रदेश में कवि ने भी बाशिंगा के फूलों का मधुर रस चूसते हुए, हिंसर मेलू और किल्मोड़ खाते हुए,मालिनी के रेतीले तट पर खेलते- कूदते हुए अपना बाल्यकाल बिताया। अत:लोक विश्रुत इस कथा को कवि ने सुरम्य आंचलिक परिवेश के साक्षात अनुभवों के साथ प्रस्तुत किया है।

परिवेश, प्रणय, वियोग, सृजन, प्रायश्चित, पुनर्मिलन भरत-भारत और उर्ध्व पथ, इन 8 सर्गों र्में विभक्त है यह काव्य कृति

यह काव्य कृति परिवेश, प्रणय, वियोग, सृजन, प्रायश्चित, पुनर्मिलन भरत-भारत और उर्ध्व पथ, इन 8 सर्गों र्में विभक्त है।
मालिनी नदी के उद्गम मलनिया से लेकर कोटद्वार तक कण्व आश्रम का क्षेत्र था। विभिन्न पौराणिक ग्रंथों के आधार पर मालिनी की स्थिति स्पष्ट है-
स्कंद पुराण के केदारखंड -५७/१०-११ में आया है कि
”कण्व आश्रम समारभ्य यावन्नंद गिरिर्भवेत।
तावत् क्षेत्रम परम् पुण्यंभुक्ति मुक्ति प्रदायकम्।
कण्वो नाम महा तेजा महर्षि लोकविश्रुत:।
तस्याश्रम पदे नत्वा
भगवन्तम् रमापतिम्।।”
शकुंतला और दुष्यंत की प्रणय कथा मालिनी की सदानीरा जलधारा के कलकल स्वर से मानो बार-बार दोहराई जा रही है-
कवि के शब्दों में –
‘तेरा बहता जल दोहराता, एक ऋषि था एक अप्सरा।’

“मालिनी का आंचल” का शिल्प और भाव सौन्दर्य

“मालिनी का आंचल” समीक्ष्य काव्य में नवरसों में शृंगार,वीर एवं शांत रस की प्रधानता है।काव्य में अनेक अलंकारों का स्वाभाविक एवं अनायास प्रयोग हुआ है।

मानवीकरण

‘अरुण उत्साह का हास मनोहर शांति गगन की सुप्त किरण।’

विरोधाभास

प्यार तितिक्षा विरह मिलन, प्रगति पलायन नवसृजन। पृष्ठ 17
रात आधी चांद पूरा, नीरव गगन में
चांदनी के पंख कोमल, मंत्र जैसे झर रहे हैं। पृष्ठ 74

रूपक अलंकार

एकांत के इस ज्योति पथ में, अस्तित्व तुम आसक्ति तुम
मैं तुम्हारी सांस से घायल विजन का सिंह। पृष्ठ 39
मैं मन से मन की बात करने
वन में घिरी हिरणीऔर
तीर की आतप व्यथा हूं ।
मात्र इतना संदेश मेरा
महाराज से कह दो
मैं शकुंतला हूं। पृष्ठ 50
शकुंतला खींच उनके नाक नक्श याद के गहरे कुएं से
खींचती घट एक
सींचती पादप समय का
समय यूं कटता गया। पृष्ठ 55

अनुप्रास अलंकार

मुख पर बिखरी ललित लटें थी  (पृष्ठ 31)
जोड़ लेती है इन्हें
सर सर सरकती धार अविरल।‌ पृष्ठ 52
चिट्ट थी धूप चिलचिलाती दोपहर पृष्ठ 59

उत्प्रेक्षा अलंकार

ओंठ खुले ज्यों बिजली चमके ज्यों घन बीच गगन में।
****
प्रकृति रूप धर मानवी का
मानो वहां खड़ी थी ।
****
या अलसाई शिशिर के बाद
पर्वत पर वसंत खिला हो। (पृष्ठ 32)
धूमकेतु सी एक टीस
मन में उठी धूप रेख ज्यों
पूजा की थाली में
शकुंतला विकल थी….. पृष्ठ 43

उपमा अलंकार

उन्नत कपाल सूर्यमुखी सा
चौड़े कंधे बलिष्ठ भुजाएं। पृष्ठ 32
सुख की उम्र छोटी है
गिर जाता समय वट से
पीत पातों की तरह। पृष्ठ 34
पिंडालू पात में जल बूंद सा। पृष्ठ 48
विरह की तीव्र वेदना
बनता गीत विरह
ध्वनि तरंगों में
लुढ़क जाते शब्द
आह बनकर अश्रु बनकर
कंठ में, नयन में। पृष्ठ 44

पलायन का विद्रूप

जारी है विकास
अजगर की मानिंद
छाती पर पहाड़ के रेंगती सड़क
इसी सड़क से
भागते लोग मैदान में
इसे पलायन कहें,
कहें विकास या विकास का निकास ।
सिकुड़ गए रिश्ते इस चौड़ी सड़क ने निगल ली पगडंडी
खुदेड़ गीत की धुन निगल गया कोलाहल। (पृष्ठ 19)
कवि युग दृष्टा होता है पलायन को कवि इस दृष्टि से देखता है-
लांघ पर्वत मैदान में
विवश खड़ी जवानी
दो जून की रोटी और सफर मीलों का
यह कैसी कहानी है
*पर्वतीय नारी का प्रतीक शकुंतला*-
घाटी का जनजीवन
और मालिनी का यौवन
यह अतीत का पृष्ठ
डर डर के मैं बांच रहा
ढूंढ रहा तपोभूमि को
रेतीले टीलों में
मालिनी की तरल तरंग
विलीन हुई सिक्ता तल में
जोड़ अतीत को वर्तमान से प्रवासी हुआ दुष्यंत
बाट जोहती दिन गिनती
थकी शकुंतला खेतों में।
**********
उभरे जनजीवन घाटी में
पुराण बने चिर नवीन
लौट आए दुष्यंत आज का
घाटी को आबाद करें,
और शकुंतला का मुख मंडल स्वर्णिम आभा ले मुस्काए। ( पृष्ठ 29)

आज की राजनीति पर कटाक्ष

दल बदल लो चोगा नूतन
चाहे जितनी बार पहन लो राजनीति के अंकगणित से
पर्वत से नहीं जुड़ पाओगे
वोट उगाओ जाति जगाओ।
(इसी काव्य से)

शकुंतला का सौंदर्य

मासूम रूप उभरता यौवन
मुख पर बिखरी ललित लटें थी बाली कानों की चूम रही
गालों को थी बार-बार
****
अतुलित वह सौंदर्य समेटे ज्यों उषा की प्रथम किरण
ज्यों ग्रीष्म में शीतलहर
उपमान लजा जाते
फिर दें किसकी उपमा। (पृष्ठ 31- 32)

सहज एवं समर्थ अभिव्यक्ति कौशल

अतीत मधुर हो जीवन में तो वर्तमान शर्माता है।
हो वर्तमान रंजित सुख से
तो अतीत हकलाता है। पृष्ठ45

प्रकृति के अंचल में भरत का जन्म

और किलकारी सुनी
नन्हे शावकों ने
दूध पीती बाछियों ने
अनछुई अधजगी कोपलों ने तितलियों ने परिधान नूतितलियों ने परिधान नूतन
ओढ़ फूलों से कहा
लो शकुंतला ने अभी
जन्म बालक को दिया। पृष्ठ 54

सृजन की संवाहिका चेतना

द्वैत केवल दृष्टि तक
उससे परे अद्वैत राजन
चेतना का अभिसार करता
नित्य ही नूतन सृजन है
तितलियां हैं फूल जैसी
पंखुड़ियां हैं पंख जैसी
कितना विरल यह साम्य। पृष्ठ 76

शासक का गुरुत्तर दायित्व

विरक्ति भाव भौतिकता से
आसक्ति मगर जनहित से
कर्म मार्ग का पंथ सुझाता
निर्लिप्त रहे कर्मफल से ।
यह दिशा निर्देशन राजन
सिहासन से जुड़ी रहे तो
आर्यावर्त का ध्वज पुरुष
कभी निरंकुश नहीं बनेगा। पृष्ठ 79

मानव और प्रकृति का संबंध

जुड़ी रहे प्रजा प्रकृति से
ज्यों मां से जुड़ता है शैशव
व्यष्टि निष्ठ भौतिक जगत
छीन लेता धरा का वैभव। पृष्ठ 78

रहस्यवाद एवं दार्शनिकता

किस दिशा में खोज ले
इस सृजन के पार क्या
खोज लें कितने युगों तक
इस सृजन का सार क्या?
क्या सृजन के पार सृष्टा
है नियत आकार लेकर
यदि नहीं वह विलग तो
ब्रह्म का आधार क्या? पृष्ठ 82
इस धरा के बिंब आधे-अधूरे
प्रतीक सारे प्रतीति भर
परमानंद इन सबसे अलग विचरण न हो विचार का जब चेतन ठहरता शून्य में तब,
जागृत मगर जागरण के पार काल औ द्वंद्व का निस्तार। पृष्ठ 83

आनंद और सौंदर्य

आनंद यदि सौंदर्य तो,
आनंद की अनुभूति कुछ यूं? व्योम का स्पर्श
उन्नत शिखर पर
घाटियों में गूंजता
ज्यों पवन स्वर
तन्वंगी नदी में
मचलती लहर
ज्यों स्पर्श अधरों का अधर पर जोड़ता नभ को धरा से
इंद्रधनुष प्रपात गिरता ज्यों
नदी के वक्ष पर। पृष्ठ83

काव्य कृति के कवि में ‘अज्ञेय’सी बौद्धिकता एवं नवीन प्रतीक योजना कौशल है

समालोचित काव्य कृति के कवि में ‘अज्ञेय’सी बौद्धिकता एवं नवीन प्रतीक योजना कौशल है। इस काव्य की भाषा सुष्ठु एवं
समर्थ है तथा छंद योजना की दृष्टि से यह कविता छंद मुक्त कविता है, शैली की दृष्टि से कवि ने संवादात्मक शैली का आश्रय लिया है ।
सारांशत: यह कवि की एक उत्कृष्ट एवं पठनीय कृति है। कवि का यह उपक्रम अवश्य ही लोक में समादृत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
समीक्षक: डॉ. अम्बरीष चन्द्र चमोली, (फेसबुक पोस्ट)