बदल गया परिदृश्य ! कैसा वक्त है भाई!
सत्तर साल की उम्र में, याद लौट के आयी।
कई युद्ध लड़े जीवन में,कभी हार न मानी,
जीवन के इस पड़ाव में,कोरोना की जानी।
छोड़ दिया था घर पुश्तैनी, नए मकान बनाए,
सेना के बंकर से लेकर, महल जिंदगी भायी।
आज अचानक घर की ,याद मुझे क्यों आईं ?
इस पुश्तैनी घर निर्माण की, मैंने मन में ठानी।
मै वीर गबर सिंह का वंशज, सैनिक भी पुश्तैनी,
वर्ष इकहत्तर का युद्ध लड़ा हूं, वीर इंद्र सेनानी।
घर का मतलब महल नहीं, ना मात्र आशियाना।
यह पितरों की आत्मा है, पिता रहें कभी सयाना।
सरहद का साक्षी@कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
(कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।