पहाड़ और सागर में,
डूबते सूरज की गति समझो!
बीहड़ और समतल,
धरती का मर्म तुम भी समझो!
नियति का चक्र निरन्तर,
इसके गूढ़ रहस्य को समझो!
सदा समीप सूर्य नहीं रहता,
अपने पथ पर अविरल चलता।
सदा यौवन तेज नहीं रहता,
विकल मन देह शीत है सहता।
अरूणोदय की लालिमा,
और प्रचंड प्रकाश का यौवन !
ठहर थम जाए क्षितिज पर,
क्यों मन हो जाता है कुंठित !
सरहद का साक्षी @कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत