कविता: शहर डूबा झील में!

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पलायन पर कविता
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शहर डूबा झील में!

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

शहर डूबा झील जल में
जंगल जला है आग से।
मै खड़ा चट्टान पर हूँ
दुनिया जली है डाह से।
       शहर डूबा——–
घाटियों मे धुंध छाई
पर्वतों पर पाला पड़ा।
पलायन के पाप से
दरवाजों पर ताला लगा।
       शहर डूबा———-
गाँव खाली हो रहे हैं
नगर भारी बन गये।
खेत में अब शूल काँटे
शूल बढ़ते जा रहे।
         शहर डूबा ——–
दूध पीता अब न कोई
दुनिया शराबी हो रही।
देवताओं को भी मदिरा
आज अच्छी लग रही।
        शहर डूबा———–
पेड़ पर पत्ते घने थे
जाने न कब वे झर गये।
संसार के सूरज अचानक
शीत में  कहाँ मर गये।
      शहर डूबे ————
पर्वत ऊँचे उठ गये हैं
घाटियाँ संकरी हुई।
हम अधर में फ़ंस गये हैं
कहीं के भी ना रहे।
      शहर डूबा———-
सिंहासनों पर लोग कैसे !
कोई कह सकता नहीं।
आम की सरकार में भी
खास कुर्सी ही रही।
   शहर डूबा————-

(कवि कुटीर)
सुमन कालोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल।