समाज के हर वर्ग की कथा व्यथा को वर्णित करती हैं महाकवि नागार्जुन की कविताएं 

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    स्मरण: महाकवि नागार्जुन

    कई दिनों से व्यस्तता के कारण 05 नवंबर को महाकवि नागार्जुन जी की पुण्यतिथि पर कुछ नहीं कर सका। आज फुर्सत के क्षण में 02 दिन बाद कवि को मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। महाकवि नागार्जुन की कविताओं से मैं बहुत प्रभावित रहा हूं। उनकी कविताएं सर्वहारा वर्ग की कविताएं हैं। गरीब, असहाय, किसान, मजदूर, शिल्पी, काश्तकार और समाज के हर वर्ग की कथा व्यथा को वर्णित करती हैं ।
    महाकवि नागार्जुन आधुनिक युग के प्रगतिवादी कवि हुए हैं। 30 जून सन 1911 में दरभंगा बिहार में पैदा हुए हैं और मृत्यु तक वह साहित्य सृजन  करते रहे।

    [su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

    महाकवि नागार्जुन का मूल नाम विद्यापति मिश्र था। बाद में बौद्ध धर्म स्वीकार कर देने के कारण उन्होंने अपना नाम नागार्जुन रखा। बचपन में तो और भी कई नामों से जाने जाते थे ।गद्य लेखन में जो स्थान प्रेमचंद का है, वही स्थान काव्य में नागार्जुन का है ।उनकी कविताओं में दर्द है। दर्पण है । ओज है और मानवीय संवेदनाओं की पीड़  प्रतिपल उभरती रहती हैं। बिहार के अकाल के बारे में रची गई उनकी कविताएं आज भी लोग गुनगुनाते रहते हैं और उस महा पीड़ा को याद करके लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    समाज की दशा और दिशा पर महाकवि नागार्जुन ने बहुत लंबी काव्य साधना की

    महाकवि नागार्जुन ने समाज की दशा और दिशा पर बहुत लंबी काव्य साधना की। वह  बेबाक आजीवन लिखते रहे। रचते रहे। उनके साहित्य में महाकवि कबीर तथा महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के स्वर परिलक्षित होते हैं। नागार्जुन एक समाजवादी कवि थे। उनका जीवन एक खुली हुई पुस्तक के समान था। वह कभी लिहाज नहीं करते थे।यहां तक कि मांगने में भी वह कभी संकोच नहीं करते थे। तत्कालीन अनेकों कवि उनसे चिढ़ते भी थे।उनकी आलोचना करते थे। उनको लालची कहते थे क्योंकि वह कभी-कभी आयोजकों, प्रकाशकों आदि से स्पष्ट धन की मांग भी कर लेते थे। यद्यपि  उनका कद इतना ऊंचा था, उनके काव्य में ऐसी चेतना थी, उनके साहित्य में ऐसा गुण था कि लोग सहर्ष उनकी मांगों को पूरा कर देते थे।

    अंतिम समय दुर्लभता और दयनीयता में बीता

    उनका अंतिम समय दुर्लभता और दयनीयता में बीता।  उनकी पुण्यतिथि सप्ताह  पर उनको स्मरण करते हुए एक कवि के रूप में मुझे आत्म गौरव महसूस होता है। साहित्य प्रेमी होने के नाते कभी-कभी मैं अपने पूर्वर्ती कवियों की रचनाओं को जब पढ़ता हूं, उनका रसास्वादन करता हूं, उनके अंदर तक  प्रवेश करता हूं ,तो मुझे यह एक अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है।

    मैं स्वयं की कविताओं के साथ-साथ उन महान कवियों की कविताओं के अंशों को भी पाठकों के सामने लाने का भरसक प्रयास करता हूं, जिसके द्वारा  सुधि पाठकों को सत, चित और आनंद की प्राप्ति हो सके। महाकवि नागार्जुन की पुण्यतिथि पर उन्हीं की रची हुई एक कविता बिहार के अकाल से संबंधित यहां पर प्रस्तुत कर रहा हूं ।कविता के बोल हैं –

         “कई दिनों से चूल्हा रोया चक्की रही उदास ।
           कई दिनों तक काली कुत्तिया सोई उनके पास।
           कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त।
           कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही है पस्त ।

            दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद।
            धुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद ।
          चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद ।
          कौवे ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद ।

           कई दिनों से चूल्हा रोया चक्की रही उदास ।
           कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास।”  

    अकाल पर उनकी रची हुई या कविता सार्वभौमिक है। मैं ऐसे महान कवि को सलाम करता हूं। कवि युग दृष्टा होता है। कभी समाज की पीड़ा को आत्मसात करता है ।फिर भी वह जगत में अपने ही आनंद में निमग्न रहते हुए प्रसन्नता की अनुभूति भी प्राप्त करता है।