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कविता:  कुदरत के मर्म को समझो!

केदार सिंह चौहान 'प्रवर' by केदार सिंह चौहान 'प्रवर'
मार्च 2, 2022
in कविता/कहानी
वसन्त ऋतु में फुलयारी (फूलदेई) संक्रांति के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाओं के साथ हुआ चैत्र मास का प्रारम्भ
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खुशी है! ठंड चली गई-
निष्क्रियता-प्रकृति और देह से,
अरुणोदय के साथ विलुप्त हो गई।
बर्फीली हवाएं थम गई।
कंबल- रजाई संदूक चले गए।
कोट स्वाटर अलमारी की शोभा बढ़ाने लगे।

देह और कुदरत का ताप!
अचानक बढ़ गया।
और होली की प्रतीक्षा करने लगा।
अचानक क्षेत्र गर्म हो गए !
जीव जंतु वन वनस्पति,
सक्रिय हो गए।

🚀 यह भी पढ़ें :  गीत: विकास का खातिर

लेकिन पुरातन मन पीड़ा-
घनीभूत हो गई।
भविष्य का डर,
खुश्क पहाड़ों की तरह,
मन को अधीर करने लगे।

संसार में हलचल हुई,
जमी बर्फ पिघल गई।
और पहाड़ नंगे हो गये!
पहाड़ की बर्फ और शीतलता,थाम लो!
शीत जाने की खुशियां मना लो!
लेकिन पहाड़ के शीतलता न गंवाओ।

याद रखना,पहाड़ यदि गर्म हुए!
तो फिर कहीं भी शीतलता नहीं रहेगी।
इसलिए कहता हूं- भाई !
समझ लो !
शीत – शीतलता का अंतर,
और प्रकृति के मर्म को समझो !

🚀 यह भी पढ़ें :  अभिलाषा: मुस्कुराता हुआ मरूं!

 कवि:सोमवारी लाल सकलानी,निशांत 

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🚀 यह भी पढ़ें :  कविता: नवयुग नवल विकास क्रम में

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