संत रविदास जी की जयंती पर विशेष: मन चंगा तो कठौती में गंगा

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    रविदास सत्य न त्यागो, जो को जग में प्राण।

    सत्य त्याग जगत में, मिलता है अपमान।”
    और “मन चंगा तो कठौती में गंगा।”

    कितनी उदास भावना है! यही महान संत रविदास जी के सूत्र वाक्य हैं। जगत के उद्धार के लिए समीचीन हैं।
    यूं तो संत रविदास जी के बारे में समय-समय पर पढ़ता रहा हूं लेकिन यह दो तथ्य “सत्य” और “कठौती में गंगा” इन दो बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जीवन में संत कवि रविदास जी के पद चिन्हों पर चलकर काफी कुछ सीखा जाता है।

    [su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी@कवि: सोमवारीलाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

    उनके विचारों और सिद्धांतों का अनुपालन करके भारत जैसे महान देश को जगतगुरु होने पर गौरव महसूस हो सकता है। संतों की वाणी जग जाहिर है। कमोबेश हर क्षेत्र में संतों की वाणी का आदर किया जाता है। संत रविदास जी के जन्म, जीवन, विचार और सिद्धांतों के बारे में आज सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा आप काफी को जान सकते हैं। मेरा तो इतना ही मानना है कि रविदासजी( रैदास जी) के विचारों से ओतप्रोत होकर हम जीवन में नया समरसता का भाव भर सकते है और जगत में अपने जीवन का उद्धार कर सकते हैं।
    ज्यादा बोलना एक कमजोरी हो सकती है लेकिन झूठ और असत्य वचन पाप है। इसलिए हमें इस पाप से बचना चाहिए और जितना हो सके सत्य का अनुसरण करना चाहिए।
    मानव जीवन में अनेकों कमजोरियां होती हैं जो कि हमारी स्वभावगत हैं न कि जन्मजात। इसलिए इन स्वभावगत कमजोरियों को दूर करना चाहिए और सत्य के मार्ग का अनुसरण कर हम महान संत रविदास जी को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं।
    हम संतों की केवल पूजा न करें बल्कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर अपने जीवन का उद्धार करें। इसी में हमारा मोक्ष छुपा है। समय-समय पर हमारे महान विचारकों ने सत्य का अनुसरण करना सिखाया।
    हमारे धर्म ग्रंथों में सत्य का सबसे बड़ा उदाहरण महाराजा हरिश्चंद्र के जीवन चरित्र से मिलता है। भगवान राम ने सत्यवचन के लिए अपने राजपाट का ही त्याग कर दिया। जिसका अभिनव प्रयोग कालांतर में भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी जी ने भी किया।
    ज्ञान उसे कहते हैं जिसमें नफरत का भाव न हो। ज्ञान में तर्क हो सकता है। ज्ञान की समीक्षा हो सकती है लेकिन ज्ञान में यदि नफरत का भाव भर जाए, तो वह आत्मा को जला देता है।
    इसलिए हमारी आत्मा पवित्र रहे। हमारी आत्मा जो अजर और अमर है, वह निष्पाप रहे। इसके लिए हमें संतों की वाणी पर भी ध्यान देना चाहिए और उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
    संकीर्णता की दीवारों को तोड़ना संत का कर्तव्य होता है। जिसके लिए महान संत कवि रविदास जी ने आजीवन प्रयास किया और भारतीय समाज से भेदभाव को हटाने के लिए समय-समय पर प्रयास भी किए। इसीलिए एक साधारण व्यक्ति रैदास आज भगवान रविदास जी के रूप में पूजे जाते हैं और हमारे देश के सर्वोच्च पद पर बैठे भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक उनको शीश नवाते हैं। इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है।
    संत चाहे वह सूफी हो या किसी भी संप्रदाय का क्यों न हो। संत तो संत होता है। उसकी न कोई जाति होती है, न उसका कोई पंथ। मानवीय आत्मा की आवाज की उसकी जाति होती है। मानवता ही उसका धर्म। मानवता की रक्षा करना उसका अर्थ होता है और मानवीय मूल्यों की रक्षा करना उसका धर्म होता है।
    संत रविदास जयंती के इस पावन पर्व पर हम एक स्वस्थ भारतीय समाज की परिकल्पना से ओतप्रोत होकर धर्म, जाति, संप्रदाय की संकीर्ण दीवारों को तोड़ते हुए, सामाजिक समरसता के सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ें। हम सब उस परमात्मा की संतान हैं। जिसने सत्य की रक्षा करने के लिए हमें यह अलभ्य जीवन जीने का वरदान दिया है।
    एक बार पुनः संत कवि रविदास जी को सादर नमन।