जाखणीधार कफाली का निकटवर्ती (झाबर वन) जंगल चढ़ा आग की भेंट, भागीरथी घाटी क्षेत्र तक हो चुका तबाह

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जाखणीधार कफाली का निकटवर्ती (झाबर वन) जंगल चढ़ा आग की भेंट, भागीरथी घाटी क्षेत्र तक हो चुका तबाह
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आसमानी पारा ज्यों-ज्यों अपनी ऊचांइयां छूं रहा है त्यों-त्यों जंगलों की आग जगह-जगह धमकने लगी है। गत सांय जाखणीधार कफाली क्षेत्र के निकटवर्ती जंगल (झाबर वन) को वनाग्नि ने अपने आगोश में ले लिया। नकोट क्षेत्र से लिए गए इस चित्र से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस जंगल के कितने बड़े दायरे को यह वनाग्नि राख कर चुकी होगी। जंगल के टॉप से लेकर भागीरथी घाटी के छोर तक यह आग जंगल को तबाह कर चुकी है।

आग की इस तबाही से मखलोगी क्षेत्र के इलाके में घुंध ही धुंध छायी हुयी है। जंगल के इस परिक्षेत्र का दायरा बहुत बड़ा है। ढ़ाई दशक पूर्व गर्मी के मौसम में जब कभी चारापत्ती अथवा जलाऊ प्रकाष्ठ का मखलोगी प्रखण्ड के गांवों में अकाल पड़ जाता था तब यह विराट जंगल मखलोगी, धारअकरिया आदि पट्टी क्षेत्रों की माता बहिनों के पालतू मवेशियों की चारापत्ती तथा जलाऊ लकड़ी की आपूर्ति का एकमात्र जरिया होता था।

मखलोगी व धारअकिरया क्षेत्र के गांवों की माता-बहनें इस जंगल (झाबर वन) से भासौं स्थित पुराने झूला पुल से होकर इस जंगल में चारापत्ती व प्रकाष्ठ के लिए जाया करती थीं। इस वन को मखलोगी क्षेत्र के लोग झाबर नाम से पुकारा करते थे। सुबह घर से नाश्ता करके लोग जंगल में लकड़ी चुगान व चारापत्ती एकत्र करने के लिए चले जाते थे। उस समय वर्तमान की तरह दोपहर के भोजन हेतु टिफिन का इस्तेमाल कम ही किया करते थे। प्रचलन था चावलों के बुखणों तथा भुने हुए गेहूं का। दोहपर के खाने के तौर पर जिस प्रकार सुदामा जी के पास यशोदा मैया द्वारा चावलों की पोटली दी गई थी, उसी प्रकार लोग चावल एवं भुने हुए गेंहू की पोटली अपने पास दोपहर के खाने के तौर पर ले जाया करते थे और दिनभर जलाऊ लकड़ी एकत्र कर सांझ ढलते घरों को लौट जाया करते थे।

देर सांय इस जंगल में धधकती आग के चलते मन में ये पुरानी यादें घर कर गई। जंगल की आग से न जाने कितने वन्य जीव जन्तुओं के जानमाल की क्षति हो चुकी होगी। रातभर वनाग्नि की चपेट में आया यह विशाल जंगल भागीरथी नदी के छोर तक राख हो चुका है। जिसके चलते मखलोगी धारअकरिया प्रखण्ड के इलाके में आज धुध ही धुंध छायी हुई है।