प्रकृति, विकृति और संस्कृति, बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय!

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व्यक्ति को समाज का अच्छा नागरिक बनाने के लिए यदि बचपन से ही उसके क्रिया कलापों को सही दिशा मिल जाए तो समाज को एक अच्छा नागरिक मिल सकता है। हमें भूख लगती है और हम भोजन करते हैं, ’इसे प्रकृति कहते हैं’। दूसरों का छीनकर खा जाते हैं, ’इसे विकृति कहा जाता है’। हम भोजन कर रहे हैं और एक भूखा व्यक्ति आता है, यदि हम उसे पहले खिलाते हैं और फिर स्वयं खाते हैं, ’इसे कहते हैं संस्कृति’।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @ *आचार्य हर्षमणि बहुगुणा [/su_highlight]

प्रकृति में विकार आ जाने पर संस्कारों की आवश्यकता होती है। संस्कार और संस्कृति एक ही धागे की दो गांठें हैं। संस्कार की पैदावार बचपन में ही होती है और संस्कृति की रक्षा युवावस्था में। जो व्यवहार अनुकरणीय एवं प्रेरक होता है वही आचार, व्यवहार, परम्परा बनकर संस्कृति कहलाती है। संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली आध्यात्मिक और वैज्ञानिक योजना है।

संस्कारों का अभिप्राय केवल पूजन, अर्चन अथवा कोई विशेष स्त्रोत्र याद करना नहीं है, अपितु नई पीढ़ी में उनके प्रति, उनके परिवार के प्रति, समाज एवं राष्ट्र के प्रति आस्था व कर्त्तव्य की भावना जाग्रत करना है। भावी पीढ़ी को मन, वाणी और कर्म से सशक्त बनाने के लिए उनमें शक्ति, भक्ति और युक्ति संयोग कराना आवश्यक है यदि हर व्यक्ति अपना आंगन स्वच्छ रखना सीख जाय तो इससे दूसरों को प्रेरणा ही मिलेगी और इससे सम्पूर्ण समाज प्रकाश वान बन कर निश्कलंक बन सकता है।

आवश्यकता है सु संगति की व सु साहित्य की। किसी के हित की। अहित कर कुछ भी लाभ नहीं होगा। छल प्रपंच की क्या आवश्यकता है। “बबूल का पेड़ बोकर आम की आशा नहीं की जा सकती, संस्कार नींव है, घर ही है संस्कारों की जन्म स्थली। बाप नशा करेगा तो सन्तान पर उसका प्रभाव अवश्य होगा। ’अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।’ अतः संस्कारों के प्रति आस्था रखनी जरूरी है।

*सेवानिवृत प्रधानाचार्य