प्राकृतिक वनौषधि मुखेम का घिंग्यारू…!

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मुखेम का घिंग्यारू...!
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[su_dropcap size=”2″]प्र[/su_dropcap]कृति ने हमें दौलत का अकूत खजाना दिया है। आवश्यकता इस बात की है कि हम किस प्रकार से उस दौलत का उपयोग कर सकें ।आज बात कर रहा हूं ,अपने पर्वतीय क्षेत्र में पाए जाने वाले एक जंगली फल  का नाम है घिंग्यारू। घिंगारू / घिंग्यारू से जीवन का बड़ा नाता रहा है। बाल्यकाल में अपने स्कूली जीवन में भूख बहुत ज्यादा लगती थी । पर्वतीय क्षेत्र में घोर गरीबी थी। केवल खेती ही आजीविका का साधन थी।  समय बहुत कठिन था, फिर भी “जहां चाह- वहां राह ” । प्रकृति कभी अपने बच्चों को भूखा नहीं मारती। हमें प्रकृति ने इतने उपहार प्रदान किए हैं कि हम पर्वतीय क्षेत्र में किसी भी विपरीत परिस्थिति में जीवित रह सकते हैं।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]

किनगोड, घिंगारू, मोल, भमोरा, तोतर , हिंसर, भन्मोरा, बेडू, तिमला आदि असंख्य ऐसे जंगली फल है जोकि विपरीत परिस्थितियों में मानव का साथ देते हैं। जुलाई के महीने जब विद्यालय खोलते थे तो मन में एक ही उत्कंठा रहती थी कि ” गंदगड़ी गाड ” खूब पेट भर के घिंगारू खाने को मिलेगा। होता भी है ही था और छुट्टी होने के बाद उधार वापस पर आते वक्त हम जी भर कर घिंघारु खाते थे।

अपनी हाल की है सैम यात्रा के दौरान मुखेम के जंगल में पके हुए घिंघ्यारू के पौधे मिले। बचपन की स्मृति ताजा हो गई और गाड़ी रोक करके जी भर के घिंघारू खाया। अंतर यह था कि हमारे क्षेत्र में घींघारू, जुलाई-अगस्त में पकता है । सेम मुखेम में यह सितंबर अक्टूबर में पकता है। हमारे क्षेत्र के घींघारू का स्वाद कुछ खट्टा अधिक होता है ,जब कि मुख़ेम के घिगारू में गजब की मिठास भरी हुई है। अगर 4 – 6  मूठ घींघारू खा लिया तो लगता है कि आधा किलो सेब खा लिया हो। बिल्कुल सेब जैसा स्वाद। ऊर्जा सेब से भी अधिक।

घिंग्यारू में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं यद्यपि यह मेरा रिसर्च नहीं है । हमारे इधर जंगली फल होने के नाते इसे कोई तवज्जो भी नहीं देता। हां, खेतों के किनारे बाड लगाने के काम आता है ।  इसके तने को काटकर मथाई करने के लिए रौड़ी , रै  या गजाई भी बनाई जाती है । घोंघारू का डंडा लेकर हाथ में चलने का पहले बुजुर्गों को बहुत शौक था क्योंकि यह बहुत मजबूत होता है । कांटेदार फल होने के कारण  तोड़ते समय यह हाथों में भी चुभता है । लेकिन छोटा पौधा होने के कारण बच्चे इस पर खूब लपकते हैं ।

कहते हैं कि:- 

  • घिंग्यारू हृदय रोगियों के लिए रामबाण है।
  • इस  जंगली फल  में  अनेक पोषण तत्व  विद्यमान है। मैं तो केवल इतना जानता हूं कि यह  भूख मिटाने का  कुदरती साधन है।
  • घिंग्यारू के पके हुए झरबरे पौधे देखने में भी सुंदर लग तें हैं। इनकी लालिमा मानव मस्तिष्क को अनुरंजित कर देती है।
  • घिंग्यारू की चटनी  बहुत स्वादिष्ट होती है। सेंधा नमक मिलाकर अगर किसको खाया जाए तो और भी स्वाद युक्त और सुपाच्य मानी जाती  है।

मेरा पर्वतीय क्षेत्र के वैज्ञानिकों से अनुरोध है कि पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाने वाली इस प्रकार की वनस्पति फलों का, पौधों का संरक्षण किया जाए। इन पर शोध किया जाए। रोजगार का स्रोत बनाया जाए।  पहाड़ों के विकास के लिए भी मील का पत्थर साबित हो सकता है।
घिंग्यारू तो मात्र एक बहाना है। अनेकों ऐसे जंगली फल हैं जो कि मेरी याददाश्त में सूचीबद्ध नहीं है । विद्यालयों में हम कृषि विज्ञान में केवल उन्हीं बातों को पढ़ते और पढ़ाते हैं जो कि हम पढ़ कर के आए हैं।

शिक्षकों का कर्तव्य है के प्रसंग वश अपने परिवेश में पाए जाने वाले ऐसे पौधों ,जंगली फल- फूलों ,औषधीय पादपों आदि का बच्चों  के साथ अवश्य चर्चा करें और गढ़वाली भाषा में भी उनको समझाएं।  हमें पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु और पाठ्यचर्या को आंकड़ों के जाल में फंसाकर के दुरूह बना देते हैं। बच्चों को समझना ही मुश्किल होता है ।इसलिए बहुत ही सरल और सरस भाषा में इस प्रकार की वनस्पतियों को स्थानीय भाषा में समझाना चाहिए।

मैंने पाया है कि बॉटनिकल नेम रटते रटते बच्चों का पसीना छूट जाता है। बमुश्किल वे उस नाम को याद कर सकते हैं । हमारे विद्यालय की शिक्षा पद्धति यह है कि हम ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच , इंग्लिश आदि  भाषाओं के नामों को तो बच्चों को रटाने का प्रयास  प्रयास करते हैं लेकिन आपनी स्थानीय भाषा में  बच्चों को बताने मैं कोताही बरतते हैं ।अतः हमारी शिक्षा ,विशेषकर प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय परिवेश पर आधारित होनी चाहिए। जैसे कि बच्चों को अपने स्थानीय परिवेश का विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो सके। नई शिक्षा नीति 2020 भी यही कहती है।