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श्रीलंका का अर्थ तंत्र डामाडोल होने के कारण जनाक्रोश के रूप में सड़कों पर जो सैलाब उमड़ा, राष्ट्रपति भवन पर कब्जा किया गया, प्रधानमंत्री का घर जलाया गया, पुलिस के साथ झड़पें हुयी, वह किसी अपशकुन को न्योता दे रहा है। यह बात समझ से परे है कि यह जन आक्रोश है या विश्व में एक नई व्यवस्था के लिए जनक्रांति।

सरहद का साक्षी @सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत

राजतंत्र हो, कुलीन तंत्र हो या प्रजातंत्र ही क्यों न हो। जब सत्ताधारी लोग जनसेवा के भाव को छोड़कर, अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनता का उत्पीड़न करते हैं, दमन करते हैं, उन्हें केवल एक उपकरण के रूप में मानते हैं, तो यह प्रकृति का नियम है कि क्रांति का बिगुल बजता है। सत्ताधारी अपनी ताकत के बल पर कभी जनक्रांति को कुचल देते हैं, कभी साम दाम दंड भेद की नीति के द्वारा अपने हितों को साधने में सफल हो जाते हैं लेकिन जो आग एक बार लग जाती है चाहे 100 वर्ष बाद और ठंडी हो, भीतर ही भीतर सुलगती रहती है और उसका परिणाम होता है एक नई व्यवस्था का पुनर्जन्म।

भारत में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 का विद्रोह भी एक जन आक्रोश था जो कि स्वाधीनता संग्राम के रूप में एक मील का पत्थर साबित हुआ। भले ही उस लक्ष्य की प्राप्ति 90 वर्षों बाद हुई हो लेकिन व्यवस्था परिवर्तन अवश्य हुआ।

प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के द्वारा विश्व में मची हुई उछल-पुथल और शासकों के कारनामों के कारण कुर्सी बचाने की चाह, ऐशोआराम और अय्याशी का जीवन, इस प्रकार की क्रांतियों को जन्म देता है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर दिखाया जा रहा है कि श्रीलंका की संपूर्ण सत्ता पर राजपक्षे परिवार का कब्जा है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और अनेकों मंत्री तथा उच्च पदों पर एक परिवार के लोग राज कर रहे हैं। यह कैसा लोकतंत्र है ? वर्तमान  समय में कैसी राजव्यवस्था है ! महत्वपूर्ण बात यह है कि खबरों के अनुसार, श्रीलंका के कुल बजट का 75% राजपक्षे परिवार की झोली में जा रहा था और जनता भुखमरी, बेरोजगारी, आर्थिक विपन्नता, विपन्नता में मर मर कर जी रही है।

दोष भले ही विदेशी ताकतों पर क्यों ना दें लेकिन असली गुनाहगार हम स्वयं होते हैं। समय की नजाकत को नहीं समझते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे धर्म ग्रंथों में बताए गए हैं। आज धर्म छद्म धर्म, अर्थ ऐश्वर्य और अय्याशी तथा राजनीति के उपकरण बन चुके हैं। दौलत और शोहरत के द्वारा क्या मोक्ष की प्राप्ति संभव है? कर्म के स्थान पर काम भावना ही विकृत रूप धारण कर अनेक प्रकार के सामाजिक बुराइयों को जन्म दे रही है। दौलत और शोहरत के लिए तथाकथित जनसेवक किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। भले ही उसकी परिणिति आंशिक रही हो लेकिन जब जनता का आक्रोश भड़कता है तो कयामत भी आती है। सत्ता के मद में बैठे शासक अपने अहंकार के कारण, आपनी ताकत के बल पर क्रांति को कुचलने का कार्य करते हैं जबकि जनता का बलिदान सर्वोपरि होता है।

जनता के शौक के कारण सड़क पर नहीं आती। सब लोग अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में, एक सुव्यवस्थित जीवन जीने की कामना करते हुए आगे बढ़ते हैं। जब उनके अस्तित्व पर स्वार्थी ताकतें कुठाराघात करती हैं तो इस प्रकार के विद्रोह खड़े हो जाते हैं जो अराजकता को जन्म देते हैं। इसका प्रभाव विश्वव्यापी होता है। शरीर के एक अंग की विकृति पूरे शरीर को संक्रमित कर देती है। ठीक इसी प्रकार किसी क्षेत्र विशेष में हुआ विद्रोह, जनाक्रोश,क्रांति या जो भी नाम दें, उसका असर विश्वव्यापी होता है।

आज विश्व प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त है लेकिन अभिजात्य वर्ग का अहंकार चरम पर है। अपनी कुर्सी और दौलत को बचाने के लिए वह अनेक प्रकार के हथकंडे आज भी अपना रहे हैं। संसार में अच्छे लोगों की कमी भी नहीं है। आज भी भगवान राम के उदाहरण हमारे पास ग्रंथों में ही नहीं बल्कि कहीं ना कहीं देखने को मिल जाते हैं। अनेक अच्छी व्यवस्थायें भी हैं, जिनके किए हुए कार्यों को जनता सदैव स्मरण करती आई है।

सत्ता के कुछ भूखे भेड़िए  महान पुरुषों के किए गए कार्यों को भी नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं। यदि इतने से काम न चला तो उन्हें महिमामंडित करने के बजाय नफरत, निंदा और बदनाम कर उनके किए गए कार्यों को भुला देना चाहते हैं। समाप्त करना चाहते है। यह बात विश्व के हर कोने पर देखने को मिल जाती है। कभी-कभी तो सत्ता के दलाल महान पुरुषों के स्मारकों,प्रतीकों को तोड़ने का भी कार्य करना शुरू कर देते हैं और कुछ चाटुकार अनर्गल प्रलाप करके ऐसा हौब्वा खड़ा करते हैं कि जनता नासमझी का शिकार हो जाती है। जब समझ उत्पन्न होती है, अपने अस्तित्व दिखाई देने पड़ते हैं, जनता में जागरूकता आती है। क्रांतियां जन्म लेती है।

श्रीलंका में जो कुछ हो रहा है वह कोई दलीय, जातीय, धार्मिक, सांप्रदायिक जनाक्रोश नहीं है बल्कि भूखे -प्यासे, बेरोजगार, साधन विहीन, महंगाई की मार झेलते हुए आम जनता का आक्रोश है। जिसे हम एक जनक्रांति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

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