आयुर्वेद विशारद चन्द्रालोक गणितज्ञ व कर्मकाण्ड मर्मज्ञ थे कपिल देव बहुगुणा

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    सरहद का साक्षी

    प्रस्तुति: हर्षमणि बहुगुणा

    ”  त्रिस्कन्धंज्योतिषं शास्त्रं, चतर्लक्षमुदाहृतम्।

    गणितं जातकं विप्र, संहितास्कन्धसंज्ञितम् ।। “

    आयुर्वेद में विशारद, पंजीकृत चिकित्सक, निर्विवाद, निर्विकार, निस्वार्थ,  चन्द्रालोक गणित के माध्यम से ग्रह, नक्षत्र, तिथि, वार आदि की जानकारी प्राप्त कर ने में दक्ष, कर्मकाण्ड के मर्मज्ञ श्री कपिल देव बहुगुणा जी पं० श्री सुरेशा नन्द  बहुगुणा जी के सबसे छोटे पुत्र थे। तीन बड़े भाई श्री मुंशी राम बहुगुणा श्री जय पति बहुगुणा व श्री चण्डी प्रसाद बहुगुणा जी कर्मकाण्ड ज्योतिष व आयुर्वेद के विद्वान थे तो उनके अनुज उनसे उन्नीस कैसे हो सकते थे। ऐसे महामानव ने इस जन्म भूमि को पं० श्री सुरेशा नन्द बहुगुणा जी के घर पर सन् १९०३ में अवतरित हो कर पवित्र किया। आपका यह कहना व मानना आप की विद्वत्ता का परिचायक है-

    अन्यानि शास्त्राणि विनोद मात्रं,

    न किंचिदेषां भुवि दृष्टमस्ति।

    चिकित्सितज्यौतिषमन्त्रवादा:,

    पदे  पदे प्रत्ययमावहन्ति।।

     अन्य शास्त्र विनोद मात्र हैं परन्तु चिकित्सा, ज्यौतिष व मंत्र शास्त्र विश्वसनीय हैं।

    इसीलिए आप इनमें पारंगत थे। भागवत पारायण भी करते थे किन्तु बहुत कम, गढ़वाल के अद्वितीय विद्वान् (मनीषी) श्री जयानन्द उनियाल शास्त्री जी ने आपको गुरु पद से सुशोभित किया।”

    “स्वाभिमान के धनी आपको गांव के प्रधान पद से सुशोभित किया किन्तु ढ़ाई वर्ष के बाद ही पद त्याग दिया। काम केवल समाज हितार्थ ही करते थे, अपने प्रधान पद के काल में जो पशु खेतों में चुंगते थे उन्हें खेतों में चुंगनें से इस कारण रोका कि घास के पौधे बढ़ नहीं पाते हैं।

    हमारा इतिहास है कि जब भी गांव में पूजा – अर्चना का कार्य होता है तो गांव के विद्वान व्यक्ति से सहयोग लिया जाता है और अपने पुरोहितों को पूरी दान दक्षिणा से अलंकृत कर विदा करने की परम्परा बनी रहती है, आप इसमें पूरा-पूरा सहयोग देते थे। ऐसे मनीषी सु-चिकित्सक के घर दो बेटियां व तीन पुत्रों ने जन्म लेकर अपने को धन्य माना।

    बड़े पुत्र श्री हरदेव बहुगुणा व छोटे पुत्र श्री महादेव बहुगुणा अपनी आजीविका में रत हैं, किन्तु मझले पुत्र श्री श्री देव बहुगुणा जिनका जन्म २६ सितंबर सन् १९५३ में हुआ था  संयोग से उनके परिणय का दायित्व मैंने निभाया था वे २४ जुलाई २०११ को असामयिक अकाल कवलित हो गये। जो सबकी व्यथा का कारण था।

    आप की कृपा का पात्र मैं भी आपकी गुरु दीक्षा के उपहार से अलंकृत हुआ। परन्तु आपके विषयक पूरी जानकारी उपलब्ध न कर पाना अपनी कमजोरी व अल्पज्ञता ही समझ रहा हूं। आप जैसे मनीषी को सितंबर १९८६ में खो कर हम अपना दुर्भाग्य ही समझते हैं।”

    आज के इस पितृपक्ष में आपको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर मिला अतः पूरे परिवार व गांव की ओर से श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए, कोटि-कोटि नमन करता हूं यह प्रार्थना भी करता हूं कि देव भूमि उत्तराखंड की इस छोटी काशी को समृद्ध करने के लिए अपना आशीर्वाद व कृपा दृष्टि बना कर अवश्य रखेंगे।  ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति!