आमपाटा में आयोजित श्रीमद्भागवत् महापुराण में कथा व्यास आचार्य हर्षमणी बहुगुणा द्वारा कराया गया मृदुल रसपान, पढ़े कथासार

आमपाटा में आयोजित श्रीमद्भागवत् महापुराण में कथा व्यास आचार्य हर्षमणी बहुगुणा द्वारा कराया गया मृदुल रसपान, पढ़े कथासार
play icon Listen to this article

आमपाटा में आयोजित श्रीमद्भागवत् महापुराण में कथा व्यास आचार्य हर्षमणी बहुगुणा ने कथा का रसपान कराते हुए कहा-
श्रीमद्भागवत् महापुराण की कथा प्रायः सात दिनों तक कहीं जाती है, अतः इसे सप्ताह कथा (वाचन) कहते हैं। कथा के तीन अंग है वक्ता, श्रोता और आयोजक। तीनों को अहंकार रहित होना चाहिए, कथा श्रवण के तीन प्रधान अंग हैं। श्रद्धा, जिज्ञासा और निर्मत्सरता। बिना जिज्ञासा के मन एकाग्र नहीं हो सकता है।

कथा सुनने के लिए दीन व विनम्रता की आवश्यकता है। (इसे मत्सर के बिना ’निर्मत्सरता’ कहते हैं।) अब श्रद्धा के विषयक जानते हैं। श्रद्धा इसे कहते हैं- पाण्डवों ने माता की आज्ञानुसार द्रोपदी के साथ विवाह किया, शास्त्र के अनुकूल न होने पर भी मां की आज्ञा थी। यह है श्रद्धा।

दशरथ ने राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया, माता कौशल्या ने कहा मेरी आज्ञा से वन मत जाओ पर राम वन गये, यह थी पिता की आज्ञा। पिता के प्रति श्रद्धा और कितने ही उदाहरण हैं। परन्तु श्रद्धा है कि मन के विपरीत होने पर भी गुरु की आज्ञा का पालन करना, अति विपरीत होने पर भी प्रसन्नता के साथ आज्ञा मानना श्रद्धा है। शास्त्र की आज्ञा के पालन विषयक भी श्रद्धा का भाव हो तो उसे श्रद्धा कहते हैं।
’ आप आयोजक है पर क्या यह सम्पत्ति आपकी है, कौन सी बड़ी बात है कि मुझे कथा कहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, मैं थोड़े कह रहा हूं, आप जब सुन रहे हैं तब कह रहा हूं। आप श्रोता हैं तो अपना जीवन धन्य कर रहे हैं। अतः अहंकार रहित होकर इस पाण्डाल में बैठें, तब श्रीकृष्ण आएंगे।’ साथ कुछ नहीं जाएगा।

श्रीमद्भागवत कथा श्रवण से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है, वैसे उत्तम लोक प्राप्ति के यह सात सरल उपाय भी हैं — तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और दया । इन्हें समझें — तप वह है कि हम अपने धर्म पालन के लिए सुख पूर्वक अनेक प्रकार के कष्टों को स्वीकार करें। देश, काल और पात्र को देख कर सत्कार पूर्वक अपनी वस्तु दूसरे को देना दान कहा जाता है। विषाद, कठोरता, चंचलता, व्यर्थ चिन्तन,राग-द्वेष, मोह, वैर को चित्त से हटा कर तब चित्त को परमात्मा से लगाना ही शम है। इन्द्रियों को अपने वश में रखना दम है। तन, मन और वचन से बुरे कर्म करने में संकोच ही लज्जा है। छल, कपट और अहंकार रहित रहना सरलता है। और बिना किसी भेदभाव से प्राणि मात्र के दुःख को देखकर हृदय का द्रवित होना ही दया है। तो आइए! ! ! इन सात दिनों तक अपने तन, मन और वाणी को ईश्वर मय बनाते हुए भगवान की लीलाओं का गुणगान और रसास्वादन करने का प्रयास करेंगे। दिखावा नहीं, मन , कर्म और वाणी से ईश्वर के प्रति समर्पण। न यह शरीर अपना, न यह स्थान अपना, न ये मित्र अपने, अपना तो बस प्यारा “श्रीकृष्ण“ है। सात दिनों तक हृदय की सात ग्रन्थियों को खोलने की चेष्टा करनी है। प्यार से “जय श्री राधा“ कहिए और आपका व मेरा भी यही रिश्ता सात दिन तक रहेगा। ऐसा मान कर व्यवहार कीजिए।

विद्यया वपुषा वाचा वस्त्रेण विभवेन च ।
वकारैः पञ्चभिर्युक्तो नरः प्राप्नोति गौरवम् ।।
’ मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ’

“महाराज परीक्षित को सात दिन में मृत्यु का शाप मिला, और यदि परीक्षित न मरते तो कलयुग का प्रवेश न होता। अकाल मृत्यु से बचाने के लिए शुकदेव मुनि का आना और महाराज परीक्षित की मृत्यु को सुधारना ईश्वर की कृपा से ही हो सकता है। महामुनि शुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा प्रारम्भ की तो सबसे पहले सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया। कितना तथ्य पूर्ण तर्क था महाराज शुकदेव का, महाभारत की कथा से श्रीमद्भागवत महापुराण का शुभारम्भ होता है ।

गान्धार के राजा सुबल की पुत्री गांधारी अपने पति से महत्वपूर्ण न हो जाए ऐसा विचार कर अपनी आंखों पर पट्टी बांध कर रखती है। किस तरह कुरु वंश का अन्त होता है और फिर महाराज मनु और शतरूपा की पुत्री का विवाह कर्दम ऋषि के साथ उनकी नौ कन्याओं का जन्म व विवाह और फिर भगवान के अंशावतार कपिल मुनि का प्रादुर्भाव, पिता का तपस्या हेतु जाना और कपिल का मां देवहुति को सांख्य दर्शन का उपदेश बहुत सुंदर प्रसंग है, गृहणीय है। जीवात्मा का कारण शरीर से सम्बन्ध ही कर्मफल भोगने के लिए बार बार जन्म का निमित्त है। सांख्यानुसार कारण शरीर तेरह करणों से बनता है। बुद्धि, अहंकार व मन तथा दस इन्द्रियां। जिस प्रकार तेरह वर्णों की किसी वर्ण माला द्वारा कुल कितने शब्द बन सकते हैं उसी विधि द्वारा यह गणना की जा सकती है, किसी एक योनि में अधिकतम कितने प्राणी सम्भव हो सकते हैं,

यह संख्या तेरह का फैक्टोरियल अर्थात् (पहले 13 का एक गुणा फिर दो से गुणा फिर तीन, चार से लेकर तेरह तक) इस तरह गुणनफल होगा 6227020800 अर्थात् 622 करोड़ 70 लाख 29 हजार 800 सौ यह समझने की बात है कि किसी भी योनि में इससे अधिक प्राणी नहीं हो सकते। अब यदि यह माना जाए कि चौदह फैक्टोरियल का मानक सही है, क्योंकि अन्तःकरण की चार वृत्तियां और दस इन्द्रियां तो इसका गुणन फल होगा 8718 करोड़ याने 871 करोड़ 80 लाख से अधिक जिसका भार पृथ्वी सहन नहीं कर सकती। नाड़ी गणित द्वारा भी तेरह फैक्टोरियल से अधिक जनसंख्या नहीं होनी चाहिए या नहीं हो सकती।

🚀 यह भी पढ़ें :  सूर्य आराधना का महापर्व है सूर्य षष्ठी अर्थात छठ पूजा

भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों का यही सैद्धांतिक आधार है। खगोल शास्त्रियों ने ‌गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की अवधि में 41सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्र ग्रहण होते हैं। एक वर्ष में अधिक तम पांच सूर्य ग्रहण और दो चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं। यह भी सुनिश्चित है कि एक वर्ष में दो सूर्य ग्रहण होने ही चाहिए, यह भी सुनिश्चित है कि यदि किसी वर्ष दो ही ग्रहण हैं तो दोनों सूर्य ग्रहण होंगे। यद्यपि वर्ष भर में अधिकतम सात ग्रहण हो सकते हैं, सम्भव हैं। फिर भी चार से अधिक ग्रहण बहुत कम देखे जाते हैं प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बाद उसी तिथि पर आता है पर यह जरूरी नहीं है।

मनुष्य जब आवश्यकता से अधिक दया करता है तो स्वयं दया का पात्र बन जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण राजर्षि भरत का चरित्र है, यदि राजर्षि भरत मृग शावक पर दया न करते तो पुनः मृग योनि में न जाना पड़ता। अब देखिए यदि व्यक्ति को अपने पिछले जन्म की याद बनी रहे तो व्यक्ति संसार से विरक्त हो जाता है, जड़ भरत की तरह। जड़ भरत जानते थे कि सिद्धि से प्रसिद्धि होती है और प्रसिद्धि से आसक्ति, अतः मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा और तभी कहा कि ’राम जी की चिड़िया, राम जी का खेत। खाओ मेरी चिड़िया भर भर पेट।’ और उन्हीं जड़ भरत ने महाराज रहू गण की शंकाओं का समाधान किया।

यह एक साधक की साधना का फल था, और साधना के पथ की पहली सीढ़ी है ईमानदारी, जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति ईमानदार है प्रभु उसकी नैया पार करते हैं। उन भरत के पुत्र शतश्रृंग हुए, उनके आठ पुत्र और एक पुत्री हुई। ईश्वर की लीला अजब है वह लड़की पूर्व जन्म में बकरी थी और जब मानव तन मिला तो मुंह बकरी की तरह था। राजा शतश्रृंग ने पृथ्वी को नौ भागों में विभक्त किया आठ भाग पुत्रों को दिए और एक भाग अपनी पुत्री को दिया। इन नौ खण्डों के नाम इस प्रकार हैं- इन्द्र द्वीप, कशेरुखण्ड, ताम्रद्वीप, गभस्तिमान, नागर, सौम्य, गन्धर्व, वरुण, और कुमारिका खण्ड उसमें- महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋच्छ, विन्द्य और परिपाक ये सात कुल पर्वत भी हैं। परिपाक का दक्षिण भाग कुमारिका खण्ड के नाम से जाना जाता है। कुमारिका खण्ड पुरुषार्थ चतुष्टय को देने वाला है।

एक घड़ी आधी घड़ी, पुनि आधी की आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध ।।

इस विषय पर चर्चा करना अनिवार्य है कि अपने कुल गुरु को किसी भी रूप में नाराज नहीं करना चाहिए। देव गुरु बृहस्पति के सम्मुख जब इन्द्र ने मर्यादा का उलंघन किया तो गुरु बृहस्पति उन्हें छोड़ कर चले गए और देवता श्री विहीन हो गये और दानवों ने देवताओं को पराजित कर दिया, अब बृहस्पति से परित्यक्त देवताओं द्वारा विश्व रूप को अपना पुरोहित बनाया।

विश्वरूप ने इन्द्र को ’नारायण कवच’ का उपदेश दिया, यह ध्रुव सत्य है कि व्यक्ति यदि भय या विपत्ति के समय श्रद्धा -भक्ति के साथ ’नारायण कवच’ का पाठ करता है या श्रवण करता है तो उसकी समस्त बाधाएं दूर हो जाती है। देवताओं ने भी अपने शत्रुओं को परास्त कर त्रैलोक्य की राजलक्ष्मी को पुनः प्राप्त किया। परन्तु विश्वरूप के छल कपट से विश्वरूप को मृत्यु का वरण करना पड़ा, इससे देवराज इन्द्र को ब्रह्म हत्या लगी, परिणाम स्वरूप इन्द्र को जगह जगह भटकना पड़ा व उसी ब्रह्म हत्या के अंश भूमि, जल, वृक्ष और नारी को बांटे गए जो उन्हें मिले। कभी कभी दूसरे के अपराध की सजा किसी और को भी मिल जाती है।

भगवान अपने भक्तों की रक्षा के लिए नाना अवतार धारण करते हैं इसी श्रृंखला में भगवान श्री हरि को प्रह्लाद की रक्षा हेतु या यह कहा जाय कि अपने भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिए खम्भे से नर और सिंह का रूप धारण कर अवतरित हुए।
भगवान कितने दयालु है कि अपने भक्त से विनम्रता पूर्वक क्षमा याचना भी करते हैं ।
नृसिंह भगवान कहते हैं कि-

क्वेदं वपुः क्व च वयः सुकुमारमेतत्,
क्वेता प्रमत्तकृतदारुणयातनास्ते ।
आलोचितं. विषयमेतदभूतपूर्वः ,
क्षन्तव्यमङ्ग! यदि मदागमने बिलम्वः।।