बहती थी पर्वत की नदियां सीत ऋतु में ऐसी,
माघ मास में ऋषि गंगा में बाढ़ आ गई कैसी !
चौमासे में देखी थी, भिलंगना बहुत उफनती,
और गंगा की निर्मल धारा, तटबंधों से बहती।
[su_highlight background=”#880e09″ color=”#ffffff”]कवि : सोमवारी लाल सकलानी, निशांत[/su_highlight]
यह था न चतुर्मास अंधेरा,ना भादों की नदियां,
नहीं ग्रीष्म पूर्व पावस वर्षा,ना सावन झड़ियां।
यह माघ मास की प्रलय, कैसी- कैसी घड़ियां,
यह ऋषि गंगा का तांडव, शिव यहां फिर रूठा।
विद्वानों ने बात कही है, वैज्ञानिकों ने तक मानी,
कुछ भौतिकवादी लोगों ने, सदा दी हमको गाली।
हम कुदरत की बात कहेंगे, बुरी घड़ी कुछ टाली,
देवभूमि की खस्ता हालत,कहने को हालत माली।