इतिहास-स्मृति: 26 मार्च- चिपको आन्दोलन और गौरादेवी, मनीषी चिन्तक कुबेरनाथ राय

57
यहाँ क्लिक कर पोस्ट सुनें

आज पूरी दुनिया लगातार बढ़ रही वैश्विक गर्मी से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, कट रहे पेड़, बढ़ रहे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल, बढ़ते वाहन, ए.सी, फ्रिज, सिकुड़ते ग्लेशियर तथा भोगवादी पश्चिमी जीवन शैली इसका प्रमुख कारण है।

हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन पांच सितम्बर, 1730 में अलवर (राजस्थान) में इमरती देवी के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें 363 लोगों ने अपना बलिदान दिया था। इसी प्रकार 26 मार्च, 1974 को चमोली गढ़वाल के जंगलों में भी ‘चिपको आंदोलन’ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की एक वीरमाता गौरादेवी ने किया था।

गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता (जोशीमठ, उत्तरांचल) में हुआ था। विद्यालयीन शिक्षा से विहीन गौरा का विवाह 12 वर्ष की अवस्था में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ। 19 वर्ष की अवस्था में उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई और 22 वर्ष में वह विधवा भी हो गयी। गौरा ने इसे विधि का विधान मान लिया।

पहाड़ पर महिलाओं का जीवन बहुत कठिन होता है। सबका भोजन बनाना, बच्चों, वृद्धों और पशुओं की देखभाल, कपड़े धोना, पानी भरना और जंगल से पशुओं के लिए घास व रसोई के लिए ईंधन लाना उनका नित्य का काम है। इसमें गौरादेवी ने स्वयं को व्यस्त कर लिया।

1973 में शासन ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ा। उनके लिए घास और लकड़ी की कमी होने लगी। हिंसक पशु गांव में आने लगे। धरती खिसकने और धंसने लगी। वर्षा कम हो गयी।हिमानियों के सिकुड़ने से गर्मी बढ़ने लगी और इसका वहां की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम शासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए सोने की खान लग रहे थे।

गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। वह महिलाओं से इसकी चर्चा करती थी। 26 मार्च, 1974 को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। उस दिन गांव के सब पुरुष किसी काम से जिला केन्द्र चमोली गये थे। सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थी। अतः गौरादेवी ने शोर मचाकर गांव की अन्य महिलाओं को भी बुला लिया। सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा।

ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया; पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार डर कर पीछे हट गया। यह घटना ही ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुछ ही दिनों में यह आग पूरे पहाड़ में फैल गयी। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया।

चार जुलाई, 1991 को इस आंदोलन की प्रणेता गौरादेवी का देहांत हो गया। यद्यपि जंगलों का कटान अब भी जारी है। नदियों पर बन रहे दानवाकार बांध और विद्युत योजनाओं से पहाड़ और वहां के निवासियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सुरक्षित नहीं हैं; पर रैणी के जंगल अपेक्षाकृत आज भी हरे और जीवंत हैं। सबको लगता है कि वीरमाता गौरादेवी आज भी अशरीरी रूप में अपने गांव के जंगलों की रक्षा कर रही हैं।

मनीषी चिन्तक कुबेरनाथ राय

ललित निबन्ध हिन्दी साहित्य की एक अनुपम विधा है। इसमें किसी विषय को लेखक अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर आगे बढ़ाता है। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो पाठक नदी के प्रवाह में बिना प्रयास स्वयमेव बह रहा हो। गद्य को पढ़ते हुए पद्य जैसे आनन्द की अनुभूति होती है। अच्छे ललित निबन्ध को एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद समाप्त किये बिना उठने की इच्छा नहीं होती। हिन्दी साहित्य में अनेक ललित निबन्धकार हुए हैं। इनमें श्री कुबेरनाथ राय का अप्रतिम स्थान है।

श्री कुबेरनाथ का साहित्यिक व्यक्तित्व एक ऐसा विशाल वट वृक्ष है, जिसकी दूर-दूर तक फैली जड़ें भारत के वैष्णव साहित्य, श्रीराम कथा और गांधी चिन्तन से जीवन रस ग्रहण करती हैं। भारतीयता पर दृढ़तापूर्वक खड़े होकर भी उनका चिन्तन सम्पूर्ण विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रेमपूर्ण बन्धन में बाँधने को तत्पर दिखाई देता है। हिन्दी ललित निबन्ध को उन्होंने एक नया आयाम दिया, जिससे पाठक के मन को भी भव्यता प्राप्त होती है।

श्री कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च, 1933 को मतसा (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) में एक सुसंस्कृत वैष्णव परिवार में हुआ था। उनके छोटे बाबा पंडित बटुकदेव शर्मा अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान और उच्च कोटि के पत्रकार थे। उनका संकल्प था कि गुलाम भारत में मैं सन्तान उत्पन्न नहीं करूँगा। इसलिए किशोरवस्था में ही उन्होंने घर छोड़ दिया और आजीवन अविवाहित रहकर देशसेवा की।

उन्होंने देश, तरुण, भारत, प्रताप, लोक संग्रह, प्रणवीर जैसे राष्ट्रव्यापी ख्याति प्राप्त पत्रों का सम्पादन किया। महात्मा गांधी, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, सहजानन्द सरस्वती, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि से उनके निकट सम्बन्ध थे।

श्री कुबेरनाथ जी पर अपने इन छोटे बाबा के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी का श्रेष्ठ ज्ञान और राष्ट्रीयता के संस्कार उन्हें छोटे बाबा से ही मिले। कक्षा दस में पढ़ते समय ही उनकी रचनाएँ ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ जैसे विख्यात पत्रों में छपने लगी थीं। इनमें छपने के लिए तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यकार भी लालायित रहते थे। स्पष्ट है कि कुबेरनाथ राय के मन में साहित्य का बीज किशोरवस्था में ही पल्लवित और पुष्पित हो चुका था।

प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1958 से 86 तक वे असम के नलबाड़ी कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। 1986 में उनकी नियुक्ति अपने गृह जनपद गाजीपुर में स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर हुई। इसी पद से वे 1995 में सेवानिवृत्त भी हुए।

उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं – प्रिया नीलकण्ठी, रस आखेटक, मेघमादन, निषाद बाँसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन वचन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का बृहत साम, कामधेनु मराल आदि। विशेष बात यह है कि श्री कुबेरनाथ ने सदा अंग्रेजी का अध्यापन किया; पर साहित्य द्वारा अपने मन की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को ही श्रेष्ठ माना।

वे भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिष्ठित ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत किये गये। 5 जून, 1996 को हिन्दी के इस रससिद्ध साधक का हृदयगति रुकने से देहान्त हो गया। साभार।

[su_highlight background=”#870e23″ color=”#f6f6f5″]सरहद का साक्षी@ महावीर प्रसाद सिघंल[/su_highlight]