कविता: हाय रे! बेरोजगारी

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कविता 

हाय रे! बेरोजगारी

* विनोदसिंह बिष्ट

घर में नहीं खाने को दाना
बाहर भी नहीं है जाना
कमा कर फिर कैसे लाना
आत्मनिर्भर है बन जाना
शासन सो रहा प्रशासन सो रहा
युवा बेरोजगार है रो रहा, नेता करते मौज लुटा रहे खजाना
युवा बेरोजगार दर-दर भटके
नही किसी सत्ता ने पहचाना
हर बार चुनाव में नेता
करते बड़े-बड़े हैं वादे
जब सत्ता में आ जाते
खाते मिल बांट कर आधे-आधे
पढ़ा लिखा यु्वा सड़कों की धूल फांकता रहता है
नेता रोजगार देने का झुनझुना थमा जाता है
चुनाव में फिर युवा याद आ जाता है
वोट बटोर कर नेता फिर चला जाता है