ईगाश बग्वाल (दिवाली), दिनचर्या और बाल दिवस, एक ही तिथि को एक अद्भुत संयोग

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पलायन पर कविता
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ईगाश बग्वाल का पर्व और बाल दिवस। एक ही तिथि को, यह भी एक अद्भुत संयोग है। दीपावली के बारे में मैंने कल अपने आंग्ल भाषा आलेख में दीपावली का इतिहास, दीपावली का महत्व, दीपावली के प्रकार, चार दीवाली -राज दिवाली, बग्वाल, रीख बग्वाल, और एगाश बग्वाल के बारे में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की। यद्यपि आलेख बच्चों और युवाओं के परिप्रेक्ष्य में मैंने अंग्रेजी भाषा में लिखा। फिर भी सैकड़ों लोगों ने उसे पढ़ा, समझा और अपनी टिप्पणियां प्रस्तुत की। मैं प्रत्येक का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं।

सरहद का साक्षी @कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत

जैसा अनुश्रुतियों में उद्धृत है कि तिब्बत के युद्ध जीतने के बाद वीर-भड़ माधो सिंह भंडारी जो कि तत्कालीन समय महाराजा गढ़वाल के सेनापति थे, जब वापिस लौटे तो उनके स्वागत में बग्वाल मनाई गई। राज दीपावली के महापर्व पर माधो सिंह भंडारी युद्धरत थे इस कारण उन्हें दीपावली के पर्व पर घर आने में विलंब हो गया। दीपावली से 11वें दिन बाद वह लौटे थे। इतिहास और अनुश्रुतियों में बड़ा अंतर है। इसके ऐतिहासिक तथ्यों पर न जाकर, हमारी जो सामाजिक मान्यता है उसी को शिरोधार्य करते हुए वीर भड़ माधो सिंह भंडारी को नमन करते हैं। उनकी वीरता पौरुष और बलिदान के लिए नमन करते हैं।

भारतीय वीरता, संस्कृति, सेवा और बलिदान का एक महान उदाहरण माधो सिंह भंडारी और उनकी मलेथा की कूल (गूल) को हम सदा याद रखें। समय-समय पर ऐसे वीर भड़ों को स्मरण करें और उनकी जयंती तथा पुण्यतिथि पर एक खेत्रपाल देवता के रूप में भी उनको मनाएं। इसी में त्यौहार की प्रसंगिकता निहित है।

वीर भड़ माधो सिंह के समान व्यक्तित्व बनने के लिए  त्याग की आवश्यकता होती है और ऐसा पुरुषार्थ विरले ही महामानव में उत्पन्न हो सकता है, जो इतिहास रचते हैं और आने वाली पीढ़ी विरासत के रूप में उसे संजोए  रखते हैं।
यद्यपि अनेकों बार माधो सिंह भंडारी के बारे में जाना, लिखा और बच्चों को बताया। मैं उन्हें मलेथा का मूल निवासी समझता था और यह एक बार मैंने अपने लेख  में भी यह बात उद्धृत की थी। लेकिन मेरे साहित्यिक मित्र और पुलिस सेवा में कार्यरत इंस्पेक्टर श्री सत्यानंद बडोनी जी ने टिप्पणी कर परिष्कार करवाया कि माधो सिंह भंडारी की मलेथा में ससुराल थी और उनका गांव कोटी पन्यूली (कांडीखाल) में था। जब मैंने सम्यक जानकारी प्राप्त की तो इंस्पेक्टर बडोनी का कथन अक्षरश: सही था। इसलिए सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब हम कुछ कार्य करते हैं, तभी सीख पाते हैं। यदि मैं आलेख न लिखता और श्री सत्यानंद बडोनी उसको न पढते तो वह जीवन भर एक भूल के रूप में रहती।

आज बाल दिवस भी है। पंडित जवाहरलाल नेहरु की जयंती। जिसको हम बरसों से बाल दिवस के रूप में मनाते आए हैं।
बच्चे और त्यौहार एक सुखद अहसास दिलाते हैं। बच्चों के बिना दुनिया अधूरी है और त्योहारों के बिना संस्कृति। इसलिए प्रत्येक पर्व, मेला, त्यौहार जयंतिया, हम हर्षोल्लास पूर्वक मनाते रहते हैं।

शिक्षण सेवा काल मे बाल दिवस के अवसर पर विद्यालयी जीवन में अनेक क्रियाकलाप और गतिविधियां आयोजित की जाती थी। क्षेत्र के गणमान्य व्यक्ति विद्यालय में आते थे और वह भी उदीयमान छात्र- छात्राओं को कुछ ना कुछ पारितोषिक देकर के जाते थे। विद्यालय और शिक्षा समाज के ऐसे नैतिक दायित्व है, जहां से परोक्ष रूप से तो समाज को बहुत कुछ मिलता है किन्तु प्रत्यक्ष रूप से वहां कुछ ना कुछ देना ही पड़ता है। अनेकों ऐसे अवसर जीवन में मिलते हैं, जिनमें की कंजूस से कंजूस व्यक्ति भी कुछ ना कुछ त्याग करने का मन बना लेता है और मिलती है- एक अद्भुत खुशी। जिसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के अवसर पर विश्व के एक महानत्तम साहित्यकार के रूप में मैं उन्हें नमन करता हूं। नेहरू जी का साहित्य इतना विशद है कि उसको अध्ययन करने में युगों लग सकते हैं।

आजादी के बाद आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू का बहुत बड़ा योगदान रहा है। लंबी गुलामी के बाद हमारे उद्योग, व्यापार और  आर्थिकी रसातल में चली गई थी। उस को नई दिशा देने में पंडित जवाहरलाल नेहरू का बहुत बड़ा योगदान है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश की उस समय सेवा की जब देश की स्थिति लड़खड़ाती हुई नजर आती थी। विश्व के अधिकांश राष्ट्राध्यक्षओं को इस बात का भी भरोसा नहीं था कि भारत मजबूती से अपने पांव पर खड़ा हो जाएगा।

एक साहित्यकार होने के नाते पंडित जवाहरलाल नेहरू भावुक व्यक्ति थे और यही भावुकता कभी-कभी राजनीतिक गलतियों के रूप में भी सामने आई। भारत की  संस्कृति और विरासत इस बात की साक्षी रही है कि शरणागत को आश्रय देना हमारा नैतिक दायित्व है और इसी अच्छाई  के कारण हमें 1962 का युद्ध भी झेलना पड़ा।

भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है हम दूसरों के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखते हैं और कुटिलता से हम सदैव दूर रहते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी यही भरोसा समय-समय पर किया, जो कि कालांतर में दु:खदाई  भी है। पंडित जवाहर लाल नेहरू अपने जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाने के संकल्प के साथ एक नए भारत के निर्माण के स्वप्न के रूप में उसे दुनिया के सम्मुख प्रस्तुत करने में भी सफल रहे हैं।

बच्चे सृष्टि की अनुपम धरोहर हैं। इनकी जितनी सुंदर ढंग से परवरिश की जाए, जितने सुंदर संस्कार उनके अंदर डाले जाएं, जितना सुंदर वातावरण इनके लिए सृजित किया जाए, भविष्य में वह उतने ही स्वस्थ, सुंदर और शक्तिशाली नागरिक के रूप में आगे आते हैं। राष्ट्र की विरासत उनके कंधों के ऊपर होती है और वह तभी खरे उतर सकते हैं। जब बच्चों को उचित  स्नेह, प्यार और संस्कार दिए जाएं।

हमारे मेले, त्यौहार, पर्व भी हमें यही सिखाते हैं कि हमें परस्पर द्वेष भावना को छोड़कर उद्दात चरित्र का निर्माण करना है और विश्व बंधुत्व की भावना मन में रखकर, भाईचारे की मिसाल कायम रखें।

अहिंसा या अभिवादन का मतलब कायरता नहीं है। हम किसी का सम्मान करते हैं तो इसका यह कदापि मतलब नहीं है कि हम उनसे डरते हैं, बल्कि हमारे संस्कार हैं, जो  सनातन धर्म ने हमें सिखाएं हैं और उन संस्कारों को बरकरार रखना भी हमारी नियति होनी चाहिए। उसी में भारत का मोक्ष छिपा है और उसी में विश्व का भविष्य भी सुरक्षित है। एक बार पुनः आप सभी को ईगाश दीपावली और बाल दिवस की शुभकामनाएं। भारत स्वस्थ रहे। सुंदर रहे। सफल रहे। सुरक्षित और समृद्धशाली रहे।