मुख्यमंत्री घसियारी कल्याण योजना: उत्तराखंड की नारी शक्ति को सम्मान देने और “घसियारी” कहने से मुक्ति का रामबाण फार्मूला हैं वनाधिकार आन्दोलन की माँगे

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विधायक किशोर उपाध्याय ने प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देव भूमि उत्तराखण्ड को विशेष स्नेह प्रदान करने के लिये जताया आभार
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वनाधिकार अधिकार आंदोलन के प्रणेता व संस्थापक पूर्व विधायक किशोर उपाध्याय ने कहा कि राज्य सरकार की एक योजना “मुख्यमंत्री घसियारी कल्याण योजना”  जिसका आरम्भ गृह मंत्री ने देहरादून में किया है, उस पर कई तरह के विचार आ रहे हैं। योजना कितनी सफल होगी? भविष्य के गर्भ में है। पर्वतीय क्षेत्र में पशुओं के चारे का संकट है और इसीलिये बहुत से लोगों जिसमें लघु दुग्ध व्यवसायी भी हैं, उन्होंने पशु पालन का व्यवसाय छोड़ दिया है अपने पशुओं को बेच दिया है।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी, देहरादून[/su_highlight]

Covid-II की wave में जब पूरे के पूरे गाँव लॉक डाउन की स्थिति का सामना कर रहे थे, तो गाँव में पशुओं की चारे की गम्भीर समस्या पैदा हो गयी, मुझे सम्बंधित जिलाधिकारी से समस्या के समाधान हेतु अपेक्षा की दरकार करनी पड़ी।
ग्रामीण क्षेत्र में आज भी लाखों की संख्या में हमारी बहिनें घास लाती हैं और उन्हें अपने को घसियारी कहने में कोई ग्लानि या अपमान का बोध नहीं होता है।

“घस्यारा” कहने पर मुझे कभी कोई अपमान का बोध नहीं हुआ: किशोर

मैंने स्वयं घास काटी, घास लाया और “घस्यारा” कहने पर मुझे कभी कोई अपमान का बोध नहीं हुआ।
एक बार तो घास काटते समय “दाथड़ी” से घास के साथ विषैला साँप का मुंड भी कट गया, मेरी क़िस्मत अच्छी थी, उसने मुझे नहीं काटा।

उत्तराखंड के सरोकारों से सरोबार और चेतना आन्दोलन के प्रणेता स्व. त्रेपनसिंह चौहान जी ने “घस्यारी” प्रतियोगिता का आयोजन घनसाली में किया था और सबसे अच्छी घास काटने और “पुला” बनाने वाली घस्यारी बहिनों को लाखों के ईनाम भी दिये थे।
पहला ईनाम सम्भवतः सवा लाख रुपये का था।
हम कब व्यवसाय को सम्मान देने की प्रवृति की ओर अग्रसर होंगे? क्या घास काटना अपराध है? मैंने जितनी प्रतिक्रियायें पक्ष व विपक्ष में देखी हैं, उनमें से शायद ही किसी ने घास काटी हो, घास की “पुली” बांधी हो, घास का “गडोला” बांधा हो या उठाया हो?

हमारी माँ, दादी और दादी की दादी… सभी ने घास काटा है, वह भी जंगल से।

आज भी जंगल से घास-लकड़ी लाते हुये उत्तराखंडियों को जंगली जानवर खा जा रहे हैं।जंगल हमारी ज़िंदगी थे, वे हमसे छीन लिये गये, इसलिये उत्तराखंडियों को दो काम करने हैं:-

1. व्याप्त हीन भावना से उबरना है।
2. वनों पर अपने पुश्तैनी हक़-हक़ूक़ और अधिकार लेने हैं। वनाधिकार क़ानून में उसकी व्यवस्था है, उसे लागू करवाना है और हक़ में रूप में परिवार के एक सदस्य को योग्यतानुसार पक्की सरकारी नौकरी, केंद्र सरकार की सेवाओं में आरक्षण, बिजली पानी व रसोई गैस निशुल्क , जड़ी बूटियों पर स्थानीय समुदायों को अधिकार, जंगली जानवरों से जनहानि होने पर परिवार के एक सदस्य को पक्की सरकारी नौकरी तथा ₹50 लाख क्षति पूर्ति, फसल की हानि पर प्रतिनाली ₹5000/- क्षतिपूर्ति , एक यूनिट आवास निर्माण के लिये लकड़ी, रेत-बजरी व पत्थर निशुल्क, शिक्षा व चिकित्सा निशुल्क आदि हक़ लेने हैं।

उत्तराखंडियों को OBC घोषित करवाना है और भू-क़ानून बनवाना है

उत्तराखंडियों को OBC घोषित करवाना है और भू-क़ानून बनवाना है, जिसमें वन व अन्य भूमि को भी शामिल जाय, राज्य में तुरन्त चकबंदी करवानी है। और वे सब जो आज भी घास काट रहे हैं, “घस्यारी या घस्यारा” क्या इस काम (जिसे वे inferior समझते हैं) से निजात दिलाकर और कोई (जिसे वे superior या सम्मान जनक) समझते हैं, उनके हाथों के लिये काम की व्यवस्था करेंगे या “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” बन कर रह जायेंगे? भगवान श्रीकृष्ण गाय चराते थे, सन्त रविदास जी कठौती में गंगा ले आते थे, सन्त कबीर दास जी जुलाहे का काम करते थे, गांधीजी भी पाखाना साफ़ कर लेते थे, हमारी बहनें, बहू-बेटियाँ भी अपने पशुओं के लिये घास लाती हैं।

काम और मेहनत को सम्मान दीजिये, उनका उपहास न उड़ाइये।

उनको नेतृत्व दीजिये, 40% विधान सभा के टिकिट आने वाले विधान सभा चुनाव में दीजिये।  उनको अवसर दीजिये, IAS, IPS बनने का, वैज्ञानिक और कलाकार बनने का, जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का, उनके चेहरे पर मुस्कान लाइये, सिर का बोझ उतारिये, उनके जीवन में ख़ुशी लाईये! और यह तभी हो सकता है, जब जल, जंगल व जमीन पर उनका हक़ होगा, हमारे पुश्तैनी हक़-हक़ूक़ हमें वापस मिलेंगे। प्रियंका जी ने  गोरखपुर में सरकार आने पर साल में वहाँ की बहू-बेटियों को 3 रसोई गैस सिलेण्डर मुफ़्त देने की प्रतिज्ञा की है।

उत्तराखंड की सरकार या नेताओं को साल में 12 रसोई गैस सिलेण्डर निशुल्क देने में क्या आफ़त आ रही है?
और वह भी हम क्षतिपूर्ति माँग रहे हैं, मुफ़्त नहीं माँग रहे, हम मुफ़्तखोर नहीं हैं।

उत्तराखंड की नारी शक्ति को अगर सम्मान देना है, “घसियारी” कहने से मुक्ति देनी है तो वनाधिकार आन्दोलन की माँगे उसकी रामबाण दवा हैं,
क्षतिपूर्ति या दवा का फ़ार्मूला है।

परिवार के एक सदस्य को योग्यतानुसार पक्की सरकारी नौकरी, केंद्र सरकार की सेवाओं में आरक्षण, बिजली पानी व रसोई गैस निशुल्क, जड़ी बूटियों पर स्थानीय समुदायों को अधिकार, जंगली जानवरों से जनहानि होने पर परिवार के एक सदस्य को पक्की सरकारी नौकरी तथा ₹50 लाख क्षति पूर्ति, फसल की हानि पर प्रतिनाली ₹5000/- क्षतिपूर्ति, एक यूनिट आवास निर्माण के लिये लकड़ी, रेत-बजरी व पत्थर निशुल्क, शिक्षा व चिकित्सा निशुल्क, उत्तराखंडियों को OBC घोषित किया जाय, भू-क़ानून बनायें, जिसमें वन व अन्य भूमि को भी शामिल जाय, राज्य में तुरन्त चकबंदी करिये, इन्हें स्वीकार करिये, तथा सुखी और सम्पन्न उत्तराखंड बनाईये।