चरित्र ही जीवन का आभूषण और आधारशिला है, संस्कारों से ही चरित्र बनता है

आखिर में यह भी  नहीं रहेगा
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एक कहावत है कि ‘यदि धन नष्ट होता है तो कुछ भी नष्ट नहीं हुआ,  यदि स्वास्थ्य नष्ट होता है तो कुछ अवश्य नष्ट होता है, परन्तु यदि चरित्र नष्ट होता है तो समझो सब कुछ नष्ट हो जाता है’। वास्तव में चरित्र ही जीवन का आभूषण और आधारशिला है, उसका मेरुदंड है।

[su_highlight background=”#091688″ color=”#ffffff”]सरहद का साक्षी @आचार्य हर्षमणि बहुगुणा[/su_highlight]

राष्ट्र की सम्पन्नता चरित्र वान लोगों की ही देन ह, जिस राष्ट्र के निवासी चारित्र्य से विभूषित होते हैं वही राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है । चरित्र की जड़ों को खोखला करने का कारण ‘स्वार्थ’ है। अहंता का मूल कारण स्वार्थ की भावना है। संभवतः जहां व्यक्ति मात्र अपने लिए जीता है, वहां नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। तभी तो महर्षि वेदव्यास जी ने धर्म की सरल व सर्व ग्राह्य व्याख्या करते हुए कहा कि जो आचरण अपने अनुकूल न हो वैसा दूसरे के प्रति कभी भी न करें, यही तो है धर्म का सर्वस्व। 

“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न  समाचरेत्”।।

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भारत के महान मनीषी स्वामी विवेकानन्द जी ने भी धर्म की नीतिसंगत व नीति विरुद्ध  परिभाषा करते हुए कहा था कि – ‘ जो स्वार्थ ग्रस्त हैं वे नीति विरुद्ध हैं और जो नि:स्वार्थ हैं वे नीति संगत हैं’ ।

चरित्र वान व्यक्ति वह है जिसने अपने स्वार्थ को अंकुश में रखा है। नीति शास्त्र का विधान भी तो त्याग पर ही आधारित है, उसकी पहली मांग यह है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करना, निर्माण नहीं। स्वामी जी की दृष्टि में चरित्र हीनता ही राष्ट्र की मृत्यु का कारण है। जीवन का अर्थ बल ही है और मृत्यु दुर्बलता। कापुरुष कभी भी चरित्र वान नहीं हो सकता। सत्य क्या है? जो शक्ति प्रदान करें, शक्ति वान बनाये, हृदय के अंधकार को दूर करने में सहायक बनें  और सत्य ही चरित्र निर्माण का वास्तविक एवं स्थायी आधार है। स्वामी जी ने नैतिक नियमों का पालन करने व समाज की भलाई करने की बात कही है फिर यह भी कहा कि भलाई की बात गौण है, मुख्य है एक आदर्श। जिसका पालन आवश्यक है। नीति शास्त्र स्वयं साध्य नहीं है अपितु साध्य को पाने का साधन है। उनका मानना था कि यदि हम किसी भी व्यक्ति के चरित्र को जांचना चाहते हैं तो उसके साधारण कार्यों की जांच करनी चाहिए, उन्हीं से उसके वास्तविक चरित्र का पता लगाया जा सकता है। अतः महान वह है जिसका चरित्र सदैव और सभी अवस्थाओं में उन्नत व सम रहता है।

 

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श्री गालव महामुनि ने तो यहां तक कहा कि स्वर्ग के द्वार उस व्यक्ति के लिए बन्द हो जाते हैं जो-

ये मातृतातपरिभर्त्सन शीलिनश्च  लोकद्विषो हितजनाहितकर्मणश्च।

देवस्वलोभनिरतांजननाशकर्तृ नन्नानयध्वमपराधपरांश्च  दूता:।।

परन्तु यह सभी दोष या गुण हमारे लिए केवल पढ़ने या लिखने तक ही सीमित नहीं हैं , अपने जीवन में धारण कर ने के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, ये केवल कथा के बैंगनों की तरह नहीं हैं। यदि हम में से एक भी इनका पालन करता है तो शायद हमारा यह प्रयास सार्थक हो सकता है। पर-उपदेश उतना उचित नहीं, जितना उपदेशों को अपने जीवन में उतारना औचित्य पूर्ण है। आशा है- मन की मर्यादा, जीवन का लक्ष्य उन्नत होगा तथा कुंठा कम होगी व हम अपने चरित्र का निर्माण करने में सफल हो सकेंगे। यह विचार स्वान्त: सुखाय हैं। जीवन के पथ पर अग्रसर होने के लिए अवश्य प्रेरित करेंगे।