असामान्य व्यक्तित्व के धनी थे चन्द्र मोहन बहुगुणा

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Chandra Mohan Bahuguna was rich in unusual personality

प्रस्तुति: हर्षमणि बहुगुणा

सरहद का साक्षी,

विश्वगुरु भारत की अनुपम कहानी में देवभूमि उत्तराखंड की भूमिका महत्वपूर्ण है। यहां से भारत को पवित्र करने वाली नदियों का पवित्र जल का स्रोत ही नहीं अपितु सरस्वती की धारा के साथ बल और शक्ति के रणबांकुरे, देश भक्त पुरुषार्थी महामानवों ने जन्म लेकर भारत की माटी के साथ उत्तराखंड का नाम रोशन किया, उसी देव भूमि में सावली का योगदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा प्रदान करने में अहम् रहा है व रहेगा। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ठीक ही कहा होगा कि- व्यक्ति के शत्रु उसकी सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत सी न कहने योग्य बातें भी कहेंगे। यथा –

अवाच्यावादांश्च बहुन् वदिष्यन्ति तवाहिता:।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्।।

फिर भी अपना यह लघु प्रयास आगे बढ़ाने को उद्यत हूं, आज जिन महापुरुषों की याद आ रही है संक्षेप में, वे असामान्य व्यक्तित्व के धनी थे, पं० श्री देवानन्द बहुगुणा जी के घर सन् १८९० के लगभग श्री चन्द्र मोहन बहुगुणा जी ने शरीर धारण कर इस गांव की प्रतिष्ठा में श्री वृद्धि करने का सुअवसर प्राप्त किया। आपकी वंश वृद्धि में श्री प्रसाद बहुगुणा जी का जन्म सन् १९२० में हुआ व एक मात्र सुता को जन्म देकर कर्मकाण्ड व ज्योतिष की सार्थकता सिद्ध करने के बाद सन् १९८६, दो अक्टूबर को चिर निद्रा में लीन हो गए। दूसरे सुपुत्र श्री राम प्रसाद बहुगुणा जी का प्रादुर्भाव एक जुलाई १९२५ को हुआ।

शिक्षा जगत में आदर्श अध्यापक की भूमिका का निर्वहन कर जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक से सेवा निवृत्त होकर आज भी समाज की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने में लीन हैं।

तीसरे सुपुत्र श्री वेणी प्रसाद बहुगुणा जी का जन्म १२ अक्टूबर १९३६को हुआ उनके अनुसार अपने गांव के नौनिहालों की समुचित शिक्षा व्यवस्था के लिए प्रात: स्मरणीय श्री चन्द्रमणि बहुगुणा जी ने १९५५ में रानीचौंरी में एक विद्यालय का संचालन किया, जो श्री गौरी दत्त बहुगुणा जी के कमरों में संचालित किया जाता था। बकौल वेणी प्रसाद जी के – जब वे हाईस्कूल में अनुत्तीर्ण हो गये तो उस विद्यालय में शिक्षण करने लगे, तब आठवीं कक्षा में पांच छात्र थे, श्री मोहन लाल बहुगुणा, श्री मुसद्दी लाल पन्त, श्री डिम्मेश्वर प्रसाद कोठारी, श्री कुन्दन सिंह तड़ियाल और एक डारगी से श्री केशर सिंह जी के सुपुत्र, पांचों छात्र द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।

यही कहानी श्री डिम्मेश्वर कोठारी जी ने भी अवगत करवायी थी। धीरे-धीरे शिक्षक गण राजकीय सेवा में जाने से शिक्षण का दायित्व श्री ज्योत प्रसाद बहुगुणा श्री जीवन भट्ट व श्री मार्कण्डेय बहुगुणा जी के पास परिवर्तित हुआ। व फिर वासवा नन्द कोठारी जी के सुपुत्र श्री देवेश्वर कोठारी ने यह दायित्व सम्भालकर छात्र हित चिंतन किया, और २१ सितंबर सन् १९५७ को श्री चन्द्र मोहन बहुगुणा जी का भौतिक शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ। यह यथार्थ भी है-

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येsर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

जीवन की डोर का कोई भरोसा नहीं है। यहां हम अपने कर्मों के फल को भोगने हेतु आ रखे हैं। कर्म फल भुगतने के बाद बिना किसी बहाने के सब काम छोड़कर चले जाते हैं। श्री वेणी प्रसाद बहुगुणा जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। दो वर्ष पूर्व सहधर्मिणी ने साथ छोड़ा, जो कुछ खोया था, वह नगण्य था, पर इस बार जो बिडम्बना हुई वह कल्पनातीत है। एक मात्र सुयोग्य पुत्र पिता को तड़पता हुआ छोड़ कर अन्तिम प्रयाण के लिए अपने पंचमहाभूत शरीर को छोड़ चल दिया। विधि का खेल निराला ही है। उन दिवंगत विभूतियों (आत्माओं) को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना कि शोक की अग्नि को अपने स्नेहिल आशीर्वाद से कम कर धैर्य व सहारा देकर कृतकृत्य करने की कृपा करेंगे।

कभी लगता है कि चन्दन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता ही नहीं होता। कुछ अपवाद छोड़ कर इस गांव में ऐसी अनहोनी घटनाएं ना के बराबर घटित हुई है। ऐसी दिवंगत आत्माओं की मुक्ति (मोक्ष) की कामना करता हूं तथा अपने श्रृद्धासुमन समर्पित कर उनसे इस क्षेत्र की उन्नति की कामना करता हूं।