ब्राह्मण, अग्नि, गाय, तुलसी, कुश और मंत्र सदैव पवित्र होते हैं

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स्व धर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:*

ब्राह्मण, अग्नि, गाय, तुलसी, कुश और मंत्र सदैव पवित्र होते हैं, अशुद्ध कौन है, जिसका चित्त मलिन है।

कर्मणा जायते जन्तु: कर्मणैव प्रलीयते। सुखं दु:खं भयं शोकं कर्मणैव प्रणीयते।।

जीवन पथ को पवित्र और सरस बनाने के लिए पवित्र आचरण सबसे महत्वपूर्ण सोपान है, आज इस भ्रम का निवारण करने का कुछ प्रयास किया जाना अपेक्षित प्रतीत हो रहा है।

[su_highlight background=”#870e23″ color=”#f6f6f5″]सरहद का साक्षी @आचार्य हर्षमणि बहुगुणा[/su_highlight]

जिन कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।

प्राय: कुछ भ्रान्तियां जिसे गलत फहमी कह सकते हैं समाज में व्याप्त तो नहीं हैं पर फैलाई जाती हैं कुछ लोग शास्त्र की जानकारी तो रखते हैं किन्तु उसका उपयोग अपने हितानुसार रच कर प्रचार प्रसार करते हैं। ऐसे कपटी चापलूस लोगों से सावधान रहने की आवश्यकता है। (समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है) पातक और सूतक का दोष ग्यारह दिन तक है अर्थात् दसरात्र का तभी तो ग्यारहवें दिन शुद्धि होती है, अपने माता पिता की क्रिया कर्म करने वाला व्यक्ति पूरे वर्ष भर अपवित्र/अशुद्ध नहीं है। वह व्यक्ति अपने नित्य कर्म विधिवत् करेगा। हां अपने लिए नैम्मित्तिक और काम्य कर्म संभव नहीं हैं। लिङ्गवास व सपिण्डन के बाद अपवित्र/अशुद्ध होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह आवश्यक है कि माता-पिता की और्ध्वदैहिक कर्म में लीन व्यक्ति वर्ष भर उत्सवप्रिय नहीं रहता, स्वयं को अलंकृत (श्रृंगार रहित) नहीं करता, दूसरे के हित चिन्तन में रत अवश्य रहता है। (उसके द्वारा कृत कर्म दूसरे लिए फलदाई लाभकारी हैं) अपवित्र/अशुद्ध के हाथ के स्पर्श का अन्न जल ग्रहण नहीं किया जा सकता है और जिसके स्पर्श किए हुए अन्न जल को हम ग्रहण करते हैं वह पवित्र है, शुद्ध है। अतः यह भ्रान्ति स्वत: दूर हो जानी चाहिए कि अशुद्ध कौन है!? विचारणीय है कि जो व्यक्ति अपने दैनिक कर्म में गीता पाठ, पुराण, महापुराण श्रीमद्भागवत पाठ, वेद उपनिषद आदि का नित्य अध्ययन करता हो, वह अपवित्र कैसे? और फिर अपनी आजीविका पूजा पाठ से करने वाला व्यक्ति अपने जीवन का निर्वहन कैसे करेगा? फिर — तो – क्या? उसे वर्ष भर कहीं कोई कर्म नहीं करना है, परन्तु ऐसा नहीं है। सोचिए! कि यदि माता-पिता के इस क्रिया कर्म को करने वाला व्यक्ति कहीं राजकीय सेवा में पदस्थापित होता तो क्या वह अपनी नौकरी या व्यवसाय (अथवा धन्धा / कार्य) नहीं करेगा? जरुर करेगा। यह भी स्पष्ट उल्लेखनीय है कि वह क्रिया कर्ता बहुत शुद्ध व पवित्र है! इस कारण कि उसका अपनी जिह्वा पर नियंत्रण है, स्वयं पाकी, या अपने घर के अतिरिक्त कहीं भोजन न करना, न करता है न पानी पीता है, प्रतिबन्धित है तो उससे अधिक पवित्र और कौन होगा? स्वयं विचारणीय है कि,

अशुद्ध तो वह है जो जगह जगह भोजन कर रहा है, बिना जाने समझे जल पान कर रहा है न कि वह जो सात्त्विक आहार सोच विचार कर लेता है।” क्या करना है ऐसे व्यक्ति का जो अपने आचरण व जिह्वा को अपने नियंत्रण में नहीं रख पाता है। (अभक्ष्य) मांस मदिरा का सेवन कर फिर किसी की मंगल कामना हेतु पूजा अर्चना कर आशीर्वाद देना क्या शुभ संकेत हैं? मर्यादा का पालन न करना! “नहीं न!! शास्त्र का निर्णय है कि जिस व्यक्ति ने किसी भी दशा में भगवान नारायण का स्मरण किया या नाम लिया वह पूर्णतः शुद्ध है।
उचित अनुचित सब कर्म अपने लिए हैं। वह शुद्ध है, जो,
हरिं चिन्तयेत् नित्यम्। स्पष्ट है-

अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । य: स्मरत्पुण्डरीकाक्षं सबाह्याभ्यन्तर: शुचि: ।।

इतना ही नहीं गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि-

*ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।*
*ब्रह्मेव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिनाम् ।।*

‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा ‘ आज हमारी मनोवृत्ति कुछ दूषित है, अपने मन के अनुरूप शास्त्रों के अर्थ कर देते हैं। जबकि हमारे कर्मो के विषयक शास्त्रों में प्रमाण हैं फिर भी हम मनमानी ही करते हैं। ऐसे कुछ घृणित मानसिकता के लोग ही करते हैं। शास्त्रों में दान, पूजा, जप, तप स्वाध्याय के विषयक जानकारी दी गई है। जैसे — भगवान विष्णु ने दान के विषयक भी स्पष्ट कहा है कि दान सत्पात्र को देना चाहिए, उसका लाख गुणा फल मिलता है। सत्पात्र कौन है जो साधक है, साधना में है। जो गिरने से रक्षा करे। पवित्र अन्त:करण वाला, वह चाहे किसी यज्ञ अनुष्ठान में है या अपने माता-पिता की मोक्ष कामना के लिए क्रिया की साधना में रत है!

*पात्रे दत्तं च यद्दानं तल्लक्षगुणितं भवेत्।*
*दातु: फलमनन्तं स्यान्न पात्रस्य प्रतिग्रह: ।*

और कौन है सत्पात्र जो स्वाध्यायी है, स्वयं पाकी है, एक भुक्त, फलाहारी, परोपकारी है, स्वधर्म पालक है, सदाचारी और नित्य भगवत् स्मरण करने वाला है। हर जगह स्वाद के वशी भूत हो कर अभक्ष्य का भक्षण न करने वाले पर प्रतिग्रह का दोष भी नहीं लगता है।

*स्वाध्याय होमसंयुक्त: परपाक विवर्जित: ।*
*रत्नपूर्णामपि महीं प्रतिगृह्य न लिप्यते ।।*

पढ़ने, स्वाध्याय और ज्ञानार्जन करने की आवश्यकता है। यह भी समझना आवश्यक है कि विष को दूर करने वाला मंत्र और शीत को दूर करने वाली अग्नि दोषी नहीं होते हैं। साधक भी ऐसा ही होता है।

*विषशीतापहौ मन्त्रवह्नी किं दोषभागिनौ ।*
*अपात्रे सा च गौर्दत्ता दातारं नरकं नयेत् ।।*

अपात्र को दिया दान (गाय आदि,) नरक गामी बनाता है, पर आज कलयुग सब धर्मों पर भारी है। अपात्र ही फल-फूल रहे हैं। अपात्र कौन है?– इसका स्पष्ट संकेत है कि जिसका अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं है। अभक्ष्य का भक्षण, अपेय का पान। पवित्रता के विषयक और भी जानकारी दी है कि कुश, अग्नि, मंत्र, तुलसी,ब्राह्मण और गाय ये सभी पवित्र हैं।

*अतः कुशा वह्निमन्त्रतुलसीविप्रधेनव: ।*
*नैते निर्माल्यतां यान्ति क्रियमाणा: पुनः पुनः ।।*
*दर्भा: पिण्डेषु निर्माल्या ब्राह्मणा: प्रेतभोजने ।*
*मन्त्रा गौस्तुलसी नीचै चितायां च हुताशन: ।।*

फिर भी ब्राह्मण को खान-पान में सावधानी रखनी ही चाहिए, शास्त्र ने कह दिया और ब्राह्मण ने जिह्वा को स्वतंत्र छोड़ दिया, यह औचित्य पूर्ण नहीं है।
अतः इस विषयक आशंका नहीं होनी चाहिए। आजकल एक ट्रेड चल पड़ा है कि ‘वास्तविकता क्या है? इस पर मनन चिन्तन न कर एक भ्रम पैदा कर दिया जाय परिणाम की चिन्ता नहीं?’ इन तर्को से मेरा अभिप्राय यह नहीं कि अपने या किसी के निजी स्वार्थ की पुष्टि की जाय! अपितु वास्तविक जानकारी के अभाव में हम सामान्य जन मानस के साथ भ्रम उत्पन्न कर अनुचित कर्म के प्रति अग्रसर करने का व्यवहार करते हैं और भोली भाली जनता किसी न किसी के दुष्चक्र में आ ही जाती है। भ्रम (वहम) उत्पन्न करना बहुत सरल है पर उसका निवारण करना कठिन!
ऐसी पवित्र आत्मा बहुत हैं जो लोगों को भ्रमित कर देते हैं।
ऐसे-ऐसे कुचक्र भी संसार में देखे व सुने जाते हैं। —
*बहुत आश्चर्य है कि माता-पिता का क्रियाकर्म न करने की अभिलाषा और लोगों के पास रोना कि मुझे क्रियाकर्म नहीं करने दिया और मैं तो मासिक श्राद्ध कर रहा हूं जबकि शुद्धि हेतु एकत्रित ही न होना, घर पर न आना, बहुत बड़ी विडम्बना है और यदि क्रियाकर्म करना पड़ा तो यह दुखड़ा सुनाना कि माता-पिता की पेंशन तो दूसरे ने हजम की व उनका और्ध्वदैहिक कर्म मैं कर रहा हूं।

सटीक कहा है किसी ने – कि — ‘बिल्ली को मारा सबने देखा, पर दूध गिराया, यह किसी ने नहीं देखा’।*
यह समाज है – न किसी को मरने देता है, न जीने । अतः अपने धर्म का पालन करना आवश्यक है, श्रेयस्कर है, दूसरे का धर्म डरावना है। उस ओर न जाना न देखना ।

*सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज* ।
*श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।*
*स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ।।*

अतः आज की आवश्यकता है कि सांसारिक जीवन में सदैव अच्छे कर्म करने की कोशिश करनी चाहिए यथा संभव सन्मार्ग पर चलना चाहिए व अन्यों को भी सन्मार्ग बताना चाहिए शेष कर्म ईश्वर पर छोड़ कर आगे बढ़ना श्रेयस्कर है। धन लोलुपता बहुत बुरी है, ऐसे बाधक बहुत हैं जो साधकों के मार्ग में ही कांटे बिछाने का काम ईर्ष्या के कारण करते हैं। साधक से अधिक पवित्र और कोई हो ही नहीं सकता, जिसने निषिद्ध कर्मों का परित्याग कर रखा है, उससे अधिक पवित्र और कौन होगा? मन, वाणी और कर्म से पवित्र व्यक्ति ही संसारियों के मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं।*

छल, कपट और प्रपंचियों से अवश्य सावधान रहिए।

*वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् ।*
*इहैव लोके तिष्ठन् स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।*

शौचाचार का पालन करने वाला व्यक्ति किसी भी सूरत में अशुद्ध नहीं हो सकता है। जिसके विचार शुद्ध नहीं है वह सदैव अशुद्ध है।