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जन्मदिवस/ पुण्यतिथि विशेष, 02 मार्च: सूर्य पंडित सूर्यनारायण व्यास, निर्धनों के वास्तुकार लारी बेकर, राष्ट्रवादी इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक, गतिशील व्यक्तित्व केशवराव देशमुख

केदार सिंह चौहान 'प्रवर' by केदार सिंह चौहान 'प्रवर'
मार्च 2, 2022
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स्वाभिमान के सूर्य पंडित सूर्यनारायण व्यास

उज्जैन महाकाल की नगरी है। अंग्रेजी साम्राज्य का डंका जब पूरी दुनिया में बजा, तो जी.एम.टी (ग्रीनविच मीन टाइम) को मानक मान लिया गया; पर इससे पूर्व उज्जैन से ही विश्व भर में समय निर्धारित किया जाता था। इसी उज्जैन के प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पंडित नारायण व्यास और श्रीमती रेणुदेवी के घर में दो मार्च, 1902 को सूर्यनारायण व्यास का जन्म हुआ। वे ज्योतिष और खगोलशास्त्री के साथ ही लेखक, पत्रकार, स्वाधीनता सेनानी, इतिहासकार, पुरात्ववेत्ता आदि के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। जिन महर्षि सांदीपनी के आश्रम में श्रीकृष्ण और बलराम पढ़े थे, यह परिवार उन्हीं का वंशज है।

श्री व्यास ने अपने पिताजी के आश्रम तथा फिर वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। आठ वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने लेखन प्रारम्भ कर दिया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 1934 में उन्होंने उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व कर अजमेर में गिरफ्तारी दी और 16 मास जेल में रहे।

जेल से आकर जहां एक ओर वे अपने लेखन से जनता को जगाते रहे, तो दूसरी ओर सशस्त्र क्रांति में भी सहयोगी बने। क्रांतिकारियों को उनसे आर्थिक सहायता तथा उनके घर में शरण भी मिलती थी। सुभाष चंद्र बोस के आह्नान पर उन्होंने अजमेर स्थित लार्ड मेयो की मूर्ति तोड़ी और उसका एक हाथ अपने घर ले आये। 1942 में उन्होंने एक गुप्त रेडियो स्टेशन भी चलाया।

प्रख्यात ज्योतिषी होने के कारण देश-विदेश के अधिकांश बड़े नेता तथा धनपति उनसे परामर्श करते रहते थे। स्वाधीनता से पूर्व वे 144 राजघरानों के राज ज्योतिषी थे। चीन से हुए युद्ध के बारे में उनकी बात ठीक निकली। उन्होंने लालबहादुर शास्त्री को भी ताशकंद न जाने को कहा था।

व्यास जी ने फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इंग्लैंड, रोम आदि की यात्रा की। हिटलर ने भी उनसे अपने भविष्य के बारे में परामर्श किया था। उन्होंने 1930 में ‘आज’ में प्रकाशित एक लेख में कहा था कि भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र होगा। उन्होंने विवाह भी स्वाधीन होने के बाद 1948 में ही किया।

उज्जैन महाकवि कालिदास की नगरी है; पर वहां उनकी स्मृति में कोई स्मारक या संस्था नहीं थी। अतः उन्होंने ‘अखिल भारतीय कालिदास परिषद’ तथा ‘कालिदास अकादमी’ जैसी संस्थाएं गठित कीं। इनके माध्यम से प्रतिवर्ष ‘अखिल भारतीय कालिदास महोत्सव’ का आयोजन होता है। उनके प्रयास से सोवियत रूस में और फिर 1958 में भारत में कालिदास पर डाक टिकट जारी हुआ। 1956 में कालिदास पर फीचर फिल्म भी उनके प्रयास से ही बनी।

उज्जैन भारत के पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य की भी राजधानी थी। व्यास जी ने 1942 में ‘विक्रम द्विसहस्राब्दी महोत्सव अभियान’ के अन्तर्गत ‘विक्रम’ नामक पत्र निकाला तथा विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर आदि कई संस्थाओं की स्थापना की। इस अवसर पर हिन्दी, मराठी तथा अंग्रेजी में ‘विक्रम स्मृति ग्रंथ’ प्रकाशित हुआ। ‘प्रकाश पिक्चर्स’ ने पृथ्वीराज कपूर तथा रत्नमाला को लेकर विक्रमादित्य पर एक फीचर फिल्म भी बनाई।

व्यास जी हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने हजारों लेख, निबन्ध, व्यंग्य, अनुवाद, यात्रा वृतांत आदि लिखे। 1958 में उन्हें राष्ट्रपति की ओर से ‘पद्मभूषण’ अलंकरण प्रदान किया गया; पर अंग्रेजी को लगातार जारी रखने वाले विधेयक के विरोध में उन्होंने 1967 में इसे लौटा दिया।

सैकड़ों संस्थाओं द्वारा सम्मानित श्री व्यास देश के गौरव थे। उज्जैन की हर गतिविधि में उनकी सक्रिय भूमिका रहती थी। कालिदास तथा विक्रमादित्य के नाम पर बनी संस्थाओं के संचालन के लिए उन्होंने पूर्वजों द्वारा संचित निधि भी खुले हाथ से खर्च की। 22 जून, 1976 को ऐसे विद्वान मनीषी का देहांत हुआ।

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(संदर्भ : जन्मशती पर प्रकाशित साहित्य)

जन्म-दिवस: निर्धनों के वास्तुकार लारी बेकर

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जिनमें प्रतिभा के साथ-साथ सेवा और समर्पण का भाव भी उतना ही प्रबल हो। इंग्लैंड के बरमिंघम में दो मार्च, 1917 को जन्मे भवन निर्माता एवं वास्तुकार लारेन्स विल्फ्रेड (लारी) बेकर ऐसे ही व्यक्ति थे, जिन्होंने कम खर्च में पर्यावरण के अनुकूल भवन बनाये।

1943 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जिस पानी के जहाज पर वे तैनात थे, उसे किसी कारण से कुछ दिन के लिए मुम्बई में रुकना पड़ा। तब खाली समय में मुम्बई और उसके आसपास घूमकर उन्होंने भारतीय वास्तुविज्ञान को समझने का प्रयास किया। उन्हीं दिनों उनकी भेंट गांधी जी से हुई। इससे उनके जीवन में भारी परिवर्तन हुआ। दूसरी बार वे कुष्ठ निवारण प्रकल्प के अन्तर्गत भारत आये। तब उन्हें भारत के लोग और वातावरण इतना अच्छा लगा कि वे सदा के लिए यहीं के होकर रह गये।

बेकर ने कुष्ठ रोगियों के बीच काम करते समय भारत में निर्धन लोगों के लिए मकानों के बारे में व्यापक चिन्तन किया। उनकी दृढ़ धारणा थी कि यहाँ अत्यधिक शहरीकरण उचित नहीं है तथा भवन में सीमेंट, लोहा आदि सामग्री 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। भवन को जीवन्त इकाई मानकर इसके निर्माण को वे प्रकृति के साथ तादात्मय निर्माण की कला कहते थे।

बेकर ने भारत में हजारों आवासीय भवन, विद्यालय, चिकित्सालय, पूजा स्थलों आदि के नक्शे बनाये। उनके बनाये भवन खुले हुए और हर मौसम के अनुकूल हैं। उन्होंने भवनों में बिना चैखट के दरवाजे, खिड़की और रोशनदान लगाये। इससे उनमें प्राकृतिक रूप से हवा और रोशनी खूब आती है।

वे लोहे, सीमेंट या कंक्रीट के बदले स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मिट्टी, गारा, ईंट, पत्थर, खपरैल, नारियल, जूट आदि का प्रयोग करते थे। अंग्रेजी पढ़े आधुनिक वास्तुकारों ने उनका खूब मजाक बनाया; पर समय की कसौटी पर बेकर की धारणा ही सत्य सिद्ध हुई। अब सबको ध्यान आ रहा है कि कृत्रिम चीजों के प्रयोग से भवन-निर्माण का खर्च लगातार बढ़ रहा है और पर्यावरण गम्भीर संकट मंे है। भूकम्प, बाढ़ या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा के समय इन भवनों में रहने वालों को ही अधिक हानि होती है।

आज बढ़ते शहरीकरण के कारण दानवाकार बहुमंजिले भवन बन रहे हैं। उनकी मजबूती के लिए लोहे और सीमेंट का अत्यधिक प्रयोग हो रहा है। इन उद्योगों के बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी बहुत हो रहा है, जिससे मौसम में असन्तुलन स्पष्ट दिखाई दे रहा है। निर्धनों के वास्तुकार कहलाने वाले लारी बेकर ने झुग्गी बस्तियों के विकास, कचरा निपटान, जल संग्रह, भूकम्परोधी भवनों के शिल्प पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं।

वास्तुशिल्प में योगदान के लिए उन्हें कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत किया गया। अपनी पत्नी डा. ऐलिजाबेथ जेकब के साथ उन्होंने 1970 में केरल के त्रिवेन्द्रम में बसने का निर्णय लिया। उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए भी आवेदन किया, जो उन्हें बड़ी कठिनाई से 1989 में मिली। ईसाई होते हुए भी वे हिन्दू संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपने बेटे का नाम तिलक और बेटियों के नाम विद्या और हृदि रखा।

भारत सरकार ने उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए 1990 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। विदेश में जन्म लेकर भी भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले लारी बेकर ने 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में एक अपै्रल, 2007 कोे अन्तिम साँस ली।

जन्म-दिवस: राष्ट्रवादी इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक

श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का नाम राष्ट्रवादी इतिहासकारों में बहुत सम्मानित है। यद्यपि डिग्रीधारी इतिहासकार उन्हें मान्यता नहीं देते थे; क्योंकि उन्होंने इतिहास का विधिवत शिक्षण या अध्यापन नहीं किया था; पर उन्हें ऐसी दृष्टि प्राप्त थी, जिससे उन्होंने विश्व के इतिहास में खलबली मचा दी।

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उनका जन्म 2 मार्च, 1917 को मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर में श्री नागेश ओक एवं श्रीमती जानकी बाई के घर में हुआ था। तीन भाइयों में मंझले पुरुषोत्तम ओक की प्रतिभा के लक्षण बचपन से ही प्रकट होने लगे थे। उन्होंने 1933 में मैट्रिक, 1937 में बी.ए., 1939 में एम.ए. तथा 1940 में कानून की परीक्षा मुम्बई विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की।

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ होने पर श्री ओक खड़की स्थित सैन्य प्रतिष्ठान में भर्ती हो गये। वहाँ आठ मास के प्रशिक्षण के बाद उन्हें सिंगापुर भेज दिया गया। वहाँ वे जापानियों द्वारा बन्दी बना लिये गये। पर कुछ समय बाद जब भारतीय सैनिकों ने जापान का सहयोग करने का निश्चय किया, तो सभी 60,000 बन्दियों को छोड़ दिया गया। श्री ओक सेगांव (वियतनाम) रेडियो से भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रचार करते रहे। आगे चलकर वे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के निकट सहयोगी बन गये।

स्वतन्त्रता के बाद श्री ओक पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरे। 1947 से 1953 तक वे हिन्दुस्तान टाइम्स एवं स्टेट्समैन के दिल्ली में संवाददाता रहे। 1954 से 1957 तक उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय में प्रचार अधिकारी के नाते कार्य किया। फिर 1959 से 1974 तक दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास की सूचना सेवा में उप सम्पादक का काम सँभाला। इन सब कामों के बीच श्री ओक अपनी रुचि के अनुकूल इतिहास विषयक लेखन करते रहे।

श्री ओक का मत था कि भारत में जिन भवनों को मुगलकालीन निर्माण बताते हैं, वह सब भारतीय हिन्दू शासकों द्वारा निर्मित हैं। मुस्लिम शासकों ने उन पर कब्जा किया और कुछ फेरबदल कर उसे अपने नाम से प्रचारित कर दिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने भी सच को सदा दबा कर रखा; पर श्री ओक ने ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये, जिन्हें आज तक कोई काट नहीं सका है।

श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक ने दो पुस्तकें मराठी में लिखीं। ‘हिन्दुस्थानाचे दुसरे स्वातन्त्रय युद्ध’ तथा ‘नेताजीच्या सहवासाल’। हिन्दी में उनकी पुस्तकें हैं: भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें; विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय; कौन कहता है अकबर महान था; दिल्ली का लाल किला हिन्दू कोट है; लखनऊ के इमामबाड़े हिन्दू राजमहल हैं; फतेहपुर सीकरी एक हिन्दू नगर।

आगरा का लाल किला हिन्दू भवन है; भारत में मुस्लिम सुल्तान (भाग 1 व 2); वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास (4 भाग); ताजमहल मंदिर भवन है; ताजमहल तेजो महालय शिव मन्दिर है; ग्रेट ब्रिटेन हिन्दू देश था; आंग्ल भाषा (शब्दकोश) हास्यास्पद है; क्रिश्चियनिटी कृष्ण नीति है। इनमें ताजमहल का सच उजागर करने वाली किताबें सर्वाधिक लोकप्रिय हुईं।

इतिहास श्री ओक का प्रिय विषय था। सरकारी सेवा से अवकाश लेने के बाद उन्होंने ‘इन्स्टीट्यूट फाॅर रिराइटिंग वर्ल्ड हिस्ट्री’ नामक संस्था की स्थापना की और उसके द्वारा नये शोध सामने लाते रहे। उनके निष्कर्ष थे कि ईसा से पूर्व सारी दुनिया में वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा का ही चलन था। 4 दिसम्बर, 2007 को पुणे में उनका देहान्त हुआ।

पुण्यतिथि: गतिशील व्यक्तित्व केशवराव देशमुख

संघ के कार्य में डा. हेडगेवार एवं श्री गुरुजी की विशेष भूमिका है। गुजरात प्रांत प्रचारक श्री केशवराव देशमुख के जीवन में इन दोनों विभूतियों का एक अद्भुत प्रकार से साक्षात्कार हुआ। उनका जन्म 1921 ई0 में डा. हेडगेवार के जन्म दिवस (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) पर काशी में हुआ और जब उनका देहांत हुआ, उस दिन श्री गुरुजी का जन्म दिवस (विजया एकादशी) थी।

केशवराव का परिवार संघमय होने से वे बालपन में ही स्वयंसेवक बन गये। कुछ समय नौकरी के बाद 1945 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और उन्हें गुजरात के प्रसिद्ध नगर सूरत में भेजा गया। केशवराव शीघ्र ही वहां की भाषा, भूषा, भोजन और परम्पराओं से एकरूप हो गये। कुछ वर्षों में सूरत और उसके आसपास कई शाखाएं प्रारम्भ हो गयीं। दक्षिण गुजरात का काम मिलने पर उन्होंने बड़ोदरा को केन्द्र बनाया। रेल और बस द्वारा सघन प्रवास कर उन्होंने वहां भी संघ को सबल आधार दिया।

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वे प्रवास में एक-दो कार्यकर्ताओं को साथ रखते थे। रास्ते भर वार्ता और फिर जहां रुकते, वहां शाखा, बैठक आदि के माध्यम से उसका प्रशिक्षण चलता रहता। इस प्रकार उनकी चलती-फिरती पाठशाला में अनेक कार्यकर्ता निर्मित हुए।

1970-71 में वे गुजरात के प्रांत प्रचारक बने। योजनाबद्ध कार्य करना केशवराव की विशेषता थी। उन्होंने संघ तथा संघ विचार पर आधारित विविध कार्यों के संचालन की दूरगामी योजना बनाकर उनके लिए कार्यकर्ता उपलब्ध कराये। वनवासी कल्याण आश्रम, राजनीतिक क्षेत्र, साधना पत्रिका, सहकार आदि कई क्षेत्रों में उनके लगाये कार्यकर्ता आज भी सतत सक्रिय हैं।

1973-74 में गुजरात के भ्रष्ट शासन के विरुद्ध हुआ ‘नवनिर्माण आंदोलन’ कुछ ही समय में देशव्यापी हो गया, जिसकी परिणति 1975 में आपातकाल के रूप में हुई। गुजरात में भी अनेक कार्यकर्ता जेल गये। केशवराव ने उनके परिवारों की भरपूर चिन्ता की, जिससे जेल में बंद कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा बना रहा।

11 अगस्त, 1979 को मोरवी नगर के पास मच्छू बांध टूटने से उस क्षेत्र में भारी विनाश हुआ। केशवराव के निर्देश में स्वयंसेवकों ने जो राहत के कार्य किये, उनके कारण संघ की पूरे विश्व में प्रशंसा हुई। भयानक दुर्गंध के बीच मानव और पशुओं के शव उठाने वाले स्वयंसेवक दल को लोगों ने ‘शव सेना’ कहा। इसके बाद तीन साल तक वहां पुनर्निमाण का काम भी चला। पूरे देश के स्वयंसेवकों तथा संघप्रेमियों ने इसके लिए आर्थिक सहयोग दिया।

दो मार्च, 1981 को श्री गुरुजी के जन्मदिवस पर बड़ोदरा के कलाकार स्वयंसेवकों ने ‘स्वरांजलि’ नामक गीत-संगीतमय कार्यक्रम प्रस्तुत किया। केशवराव उसमें उपस्थित थे। बड़ोदरा लम्बे समय तक उनका केन्द्र रहा था। अतः घर-घर में उनका अच्छा परिचय था। सैकड़ों स्वयंसेवक परिवार सहित वहां आये थे। सबसे मिलकर केशवराव बहुत प्रसन्न थे। कार्यक्रम के बाद एक कार्यकर्ता के घर भोजन करने जाते समय मार्ग में जब जीप ने एक तीव्र मोड़ लिया, तो केशवराव की निश्चल देह चालक की गोद में लुढ़क गयी।

कार्यकर्ता के घर पहुंचकर चिकित्सक को बुलाया गया, तो उसने उन्हें मृत घोषित कर दिया। सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गतिशील करने वाले केशवराव का यों अचानक प्र्र्रस्थान आज भी गुजरात के कार्यकर्ताओं के मन में एक टीस पैदा कर देता है।

आगामी वर्ष प्रतिपदा पर वे जीवन के 60 वर्ष पूर्ण करने वाले थे। षष्ठिपूर्ति के इस शुभ अवसर पर काशी में उनके परिजनों ने कुछ विशेष धार्मिक अनुष्ठान भी आयोजित किये थे; पर केशवराव उससे पूर्व ही अपने आराध्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी के पास पहुंच गयेे।  (संदर्भ : ज्योतिपुंज, नरेन्द्र मोदी)

 सरहद का साक्षी @महावीर प्रसाद सिघंल 

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