बाबाजी की कुर्सी, बढाती है आज भी चौक की शोभा

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    बाबाजी की कुर्सी, बढाती है आज भी चौक की शोभा
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    बाबाजी (पिताजी) आर्थराइटिस के पेशेंट थे। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई जमीन पर नहीं बैठ पाते थे। हम बहुत गरीब लोग थे, किसी प्रकार से खेती-बाड़ी कर उदरपूर्ति करते थे। मेरी मां का एक लक्ष्य था कि मैं पढ़ लिखकर मास्टर बन जाऊं। उसकी तपस्या के फल और संघर्ष के बाद मै पढ़-लिख सका और सरस्वती शिशु मंदिर में आचार्य बन गया।

    बाबाजी अत्यंत प्रसन्न थे। उनकी भी दिले इच्छा थी कि मैं अध्यापक बनूं लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण कभी उन्होंने अपने मन की बात प्रकट नहीं की। पूरी जिंदगी उन्होंने संघर्षों में व्यतीत की।

    द्वितीय विश्व युद्ध के जांबाज सैनिक होने के बावजूद  जब अंग्रेजों ने फौज को तोड़ दिया तो उन्होंने घर आ कर खेती-बाड़ी पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया। बाबाजी इंडियन सिंगल कोर (ब्रिटिश जापान टुर्प) में थे।आजादी के दो साल बाद फिर उन्हें भारतीय सेना में बुलाया गया लेकिन परिस्थितिवश में नहीं जा पाए। संयुक्त परिवार होने के कारण 14 सदस्य परिवार था और उसका भरण- पोषण करना ही बड़ा मुश्किल था।

    कक्षा आठ उत्तीर्ण करने के बाद जब परिस्थितियां प्रतिकूल हुई तो मेरी स्कूली शिक्षा भी अधूरी रह गई और स्कूल छोड़ कर मै भी मां – बाबाजी के साथ खेती-बाड़ी के काम में ही हाथ बंटाने लगा। यद्यपि उस समय मेरी उम्र बारह- तेरह साल की थी लेकिन खेती के साथ-साथ मैने अनेकों कुटीर उद्योग भी उस दौरान सीखे। इसके साथ ही जंगलों में पशु चारण के साथ-साथ मेरी सृजनात्मकता का भी विकास हुआ।

    लंबी दास्तान है। इसलिए पुनः समय ने करवट बदली और तीन साल बाद  पुनः विद्यालय में दाखिल हो गया। परास्नातक और शिक्षास्नातक प्रशिक्षण करने के बाद ही पीछे मुड़कर देखा।

    सरकारी सेवा में आने के बाद मुझे अपना संकल्प याद रहा कि बाबाजी को बैठने के लिए कुर्सी जरूर चाहिए। खेती-बाड़ी के काम कर या बीच में जब थक ज्यादा लग जाती थी तो जमीन पर बैठना काफी कठिन था। इसलिए सोचा करता था कुर्सी होती तो बैठकर थोड़ा रिलीफ मिल जाता।

    नौकरी लगने के बाद मैंने दो कुर्सियां खरीदी और अपने छान में बाबाजी को भेज दी। बाबाजी अत्यंत प्रसन्न हुए। शारीरिक आराम कुर्सी पर बैठने से मिला। जब पिताजी के साथ पास पड़ोस के लोग आते तो कोई नीचे बैठ जाता तो कोई कुर्सी पर। केवल दो ही कुर्सियां थी। इसलिए दो कुर्सियां और खरीदी।अब पर्याप्त थी। मेरी छान की शोभा भी बढ़ गई। कुर्सियों के कारण  अब यह छान नहीं रही बल्कि एक मास्टर का घर बन गई।

    यद्यपि बाबाजी की जो कुर्सी थी, वह ना किसी अध्यापक की कुर्सी थी, न किसी अधिकारी या राजनेता की। वह कुर्सी थी- अस्वस्थ किसान की मजबूरी की कुर्सी।

    घुटनों के दर्द से अत्यंत परेशान होने के कारण पिताजी वृद्धावस्था में नीचे नहीं बैठ पाते थे। सुस्ताने के लिए कुर्सी पर बैठते तो उन्हें बड़ा रिलीफ मिलता और इससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता भी होती थी। दवा,इंजेक्शन आदि भी वह काम नहीं करते थे जो काम वो कुर्सी करने लगी।

    जब बाबाजी अत्यंत वृद्ध हो गए और अचानक एक दिन अस्वस्थ हो गए तो पड़ोसियों से एक कुर्सी पर बैठाकर उन्हें सड़क तक लाए थे। वह कुर्सी भी मेरे  घर में आज भी सुरक्षित रखी है। बस! छान में यही एक ही कुर्सी, जो कि बाबाजी की एक विरासत है, बाबाजी के लिए समर्पित है क्योंकि पुनः उन्होंने कभी यह कुर्सी नहीं देखी, ना ही कभी छानी।

    यद्यपि मेरी छानी में  दो अन्य कुर्सियां भी रखी हैं। भले आज उन पर बैठने वाला कोई नहीं है लेकिन जब अपनी छानी में जाता हूं तो सबसे पहले बाबाजी की कुर्सी अपने आंगन में लगाकर थोड़ा देर बैठता हूं।अत्यंत शकून मिलता है, उस कुर्सी पर बैठकर। यह वह कुर्सी है, जिस पर बैठकर आनंद की प्राप्ति होती है। शकून मिलता है। यह किसी अहंकार की प्रतीक नहीं है।

    अक्सर राजकीय सेवा में भी देखा है की कुर्सी हर एक को माफिक नहीं होती। कुर्सी पर बैठते ही कुछ लोगों को अहंकार हावी हो जाता है जिसके कारण उनके तथाकथित मान के साथ ही, उनका अध:पतन भी शुरू हो जाता है। कुर्सी के लाज बचाए रखना राजकीय सेवा में एक बहुत बड़ा दायित्व है। जब व्यक्ति कुर्सी पर बैठता है तो उसे आत्म गौरव की प्राप्ति होती है। एक ऐसा आत्माभिमान जो कि लोग कल्याणकारी, जनउपयोगी, छात्रोंपयोगी, समाजोयोगी और आदर्शों का प्रतीक होता है। जबकि एक दूसरा व्यक्ति जब कोई कुर्सी पर बैठता है तो अहंकार की काली छाया उसे ग्रसित कर लेती है। स्वाभिमान की जगह अभिमान हावी हो जाता है। यही अभिमान जो कि उसकी अज्ञानता का प्रतीक बन जाता है और कुर्सी का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। इसलिए अक्सर कुर्सियां बदलती रहती हैं।

    कुर्सी अमर है। सदा अमर ही रहनी चाहिए। उस पर बैठने वाला व्यक्ति नश्वर है। इसलिए व्यक्ति को सदा  ध्यान रखना चाहिए कि सांसारिक जीव होने के नाते, उसे कुर्सी का अंह कभी नहीं आना चाहिए।

    कुर्सी ज्ञान, विद्या, गौरव,व्यवस्था और आत्म सम्मान का प्रतीक है। चाहे भले ही वह किसी ऑफिस की हो या मजबूरी के नाम किसी किसान की हो, या किसी बीमार व्यक्ति की हो, या किसी कार्यालयाध्यक्ष या संस्थाध्यक्ष की हो। शासनध्यक्ष की ही क्यों ना हो। सदैव उसके मान का ध्यान रखना चाहिए।

    बाबाजी स्वर्ग लोक के नक्षत्र हैं लेकिन बाबाजी की कुर्सी आज भी एक विरासत के रूप में मेरे आंगन की शोभा बढ़ाती है। भले ही वह अस्थाई सिंहासन रहा हो लेकिन उसके चारों और आज भी  बाबाजी की स्मृति मौजूद है। वह इतिहास भी है।

    *कवि : सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’