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कृषि और पशुपालन हैं-अन्योन्याश्रित, संतुलित रखते हैं पारिस्थितिकी तंत्र

केदार सिंह चौहान 'प्रवर' by केदार सिंह चौहान 'प्रवर'
फ़रवरी 23, 2022
in कृषि/बागवानी
कृषि और पशुपालन हैं-अन्योन्याश्रित, संतुलित रखते हैं पारिस्थितिकी तंत्र
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मवेशियों को सड़कों पर आवारा न छोड़ा जाए

कृषि, पशुपालन और कुटीर उद्योग देते हैं स्थाई रोजगार

कृषि और पशुपालन भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़  रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में भी कृषि और पशुपालन आर्थिकी का आधार रहा है। एक सुनियोजित वैज्ञानिक तरीके से कृषि और पशुपालन और उसके साथ लघु और कुटीर उद्योगों का सुंदर सामंजस्य पर्वतीय संस्कृति में देखा जा सकता था।

 सरहद का साक्षी,@कवि:सोमवारी लाल सकलानी, निशांत 

खेती के लिए मानवीय संसाधनों के साथ-साथ पशुओं का होना भी नितांत आवश्यक है। हल जोतने के लिए बैल, दूध पीने के लिए गाय और भैंस, जैविक प्रोटीन के लिए भेड़ बकरियां, सामान ढोने -ढुलवाने के लिए घोड़े -खच्चर, रखवाली के लिए कुत्ता, लगभग पर्वतीय क्षेत्रों में प्रत्येक गांव में उपलब्ध होते थे।
गोबर की खाद खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। घास के क्षेत्र पशुओं के चारे के काम आते हैं। वनों से प्राप्त होने वाले संसाधन किसान के लिए महत्वपूर्ण अंग रहे हैं।  वनों की सुरक्षा का दायित्व भी स्थानीय समाज की उपलब्धि रही है। मवेशियों के चुंगानों स्थलों पर जंगलों में उनके गोबर के द्वारा वनों का भी विकास होता रहा है, जो कि एक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करता है। आज लगभग खत्म हो चुका है।

कृषि और पशुपालन हैं-अन्योन्याश्रित, संतुलित रखते हैं पारिस्थितिकी तंत्र

अब गांवों में पशुओं की संख्या नगण्य है। गोवंश पर प्रतिबंध लग जाने के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा कई मैदानी क्षेत्र के लोगों ने भी गाय- बैलों को सड़कों पर छोड़ दिया है। यह स्थिति है कि शहरों में भी जगह-जगह गोवंश दिखाई देने लग गया है जो कि यातायात व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न करता है। उनके डर के कारण असंतुलित होकर अनेकों दोपहिया वाहन चालक और बच्चे दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हैं। साथ ही छोड़े गए आवारा गाय- बैल नारकीय जीवन जी रहे हैं। घास और चारा पत्ती खाने के स्थान पर अपशिष्ट पदार्थों पर मुंह मार रहे हैं। इससे बड़ी खेद की बात और क्या हो सकती है?
समुचित व्यवस्था के अभाव में आज गोवंश एक नई त्रासदी झेल रहा है। कुछ जागरूक लोगों के द्वारा यद्यपि अथक प्रयास भी किया जा रहा है, लेकिन जनमानस की इस ओर आंखे फेरी हुई हैं।
आजकल चंबा शहर में जगह- जगह बड़ी-बड़ी बंजर गाय और बुड्ढे बैल इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। इतने बड़े बैल मैने केवल बैलगाड़ी चलाने वालों के ही देखे थे या मैदानी क्षेत्रों में ही नजर आते थे। सड़कों में आवारा पशुओं के घूमने के कारण तो अव्यवस्था हो ही रही है, अब यह आवारा पशु बची -खुची खेती को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
बंदर और सुअरों का आतंक तो पहाड़ी क्षेत्रों में जगजाहिर है लेकिन अब बंदरों का उत्पात शहरी क्षेत्रों में भी कम नहीं है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी क्यों इन समसामयिक विषयों पर नहीं सोचा जा रहा है।
किसान का बेटा होने के नाते वर्षों तक खेती का कार्य किया है। पशुचारण किया है। कुटीर उद्योगों को घर में स्थापित किया है और उसे आर्थिक लाभ भी प्राप्त किया है। पूरे पारिवारिक जीवन का एक व्यवस्थित चक्र संचालित रहता था।कार्य विभाजन( डिवीज़न ऑफ वर्क) के आधार पर सब लोग कार्य करते थे।
खेती- पशुपालन और कुटीर उद्योग जीवन रेखा से जुड़े हुए हैं। सर्वोत्तम आर्थिक बिंदु थे। आज कल चंबा में छोड़े गए आवारा पश जब मेरे घर दरवाजे के सामने आते हैं, तो सोचता हूं, उनको एक रोटी खिला देने से धर्म की रक्षा नहीं हो सकती है। गोवंश की समुचित व्यवस्था हो। उनके रखरखाव के लिए प्रबंधन हो। शासन- प्रशासन को भी इस ओर ध्यान देना है और सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए लोग भी इस व्यवस्था को आगे बढ़ा सकते हैं। इसके साथ ही रिवर्स पलायन के द्वारा हम अपने परंपरागत संसाधनों को विकासवादी सोच के साथ आगे बढ़ाएं।
पुरातन व्याप्त बुराइयों को दूर करते हुए,नवाचार करें।   अपने आर्थिक संसाधनों को भी मजबूत करें। कमाकर खाने का कुछ आनंद ही और होता है और मुफ्त में पाने का कभी आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए जरूरी है कि हम मेहनत करें। कृषि -पशुपालन और कुटीर उद्योगों पर ध्यान दें। यही परिकल्पना कभी गांधी जी ने की थी। हमारे देश के अनेक मनीषियों ने इस बारे में सोचा। चिंतन किया। हमारे घर गांव के बुजुर्ग लोग भी बात बताते हैं।
यदि गांव खुशहाल होंगे तो देश खुशहाल होगा और इस खुशहाली को प्राप्त करने के लिए करनी होगी मेहनत। देना होगा खेती -बाड़ी पशुपालन और कुटीर उद्योगों पर ध्यान। इन्हीं बातों से हम अपने असंख्य  युवाओं को रोजगार से भी जोड़ सकते हैं।
हमारे क्षेत्र के चंबा- मसूरी फलपट्टी हो या अन्य डांडे- कांठे हों,जहां आज बड़े-बड़े होटल, रेस्त्रां बन रहे हैं। सड़क के किनारे कंक्रीट के महल खड़े हो चुके हैं जो कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के दुश्मन हैं। जहां कभी आलू और मटर के फसने लहराती थी, गेहूं और जौ की बालियों से केसर झरता था, हर खूंटे पर गाय- भैंस और बैल बंधे रहते थे, वहां पर आज दैत्याकार रिसोर्ट्स बन चुके हैं। गाय- बैल, भैंस -बकरी आदि के स्थान पर आज दिखाई दे रहे हैं -ऑनलाइन बुकिंग वाले बड़े-बड़े रईस लोगों की बेशकीमती गाड़ियां और उन की ओर ताकते हुए हमारे ग्रामीण बेरोजगार बच्चे! भले ही कुछ धन उपार्जन कर रहे हों, लेकिन यह क्षणिका है।
चिर स्थाई आर्थिक व्यवस्था के लिए कृषि में नए नए शोध होने चाहिए और पर्वतीय क्षेत्रों के अनुरूप कृषि और पशुपालन कर्म को आगे बढ़ाना चाहिए। वन संपदा-घास,चारा-पत्तियों को जलाने के बजाय उन्हें पशुओं के उपयोग में लाया जाए। जंगलों के पत्तियों को एकत्रित कर पशुओं के नीचे बिछाकर, कंपोस्ट खाद के रूप में उसका इस्तेमाल हो। जंगल भी आग से सुरक्षित रहेंगे। साथ ही खाली समय में अनेक लघु और कुटीर उद्योगों का भी विकास होगा।

   घर की सब्जी- घर की दाल,घर का दही- घर का भात।
     पिएगा बच्चा घर की छांछ, खेती-बाड़ी पशुपालन लाभ।
     घर की लहसुन धनिया प्याज, घर की राई पालक साग।
     पशुओं का गोबर खेती जान, पशुपालन से है यह लाभ।

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Tags: कृषि और पशुपालन
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